भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"पलाश / नरेन्द्र शर्मा" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: आया था हरे भरे वन में पतझर, पर वह भी बीत चला।<br /> कोंपलें लगीं, जो लगी...)
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
आया था हरे भरे वन में पतझर, पर वह भी बीत चला।<br />
+
{{KKGlobal}}
कोंपलें लगीं, जो लगीं नित्य बढ़नें, बढ़ती ज्यों चन्द्रकला॥<br />
+
{{KKRachna
<br />
+
|रचनाकार=नरेन्द्र शर्मा
चम्पई चाँदनी भी बीती, अनुराग-भरी ऊषा आई।<br />
+
}}
जब हरित-पीत पल्लव वन में लौ-सी पलाश-लाली छाई॥<br />
+
<poem>
<br />
+
आया था हरे भरे वन में पतझर, पर वह भी बीत चला।
पतझर की सूखी शाखों में लग गयी आग, शोले लहके।<br />
+
कोंपलें लगीं, जो लगीं नित्य बढ़नें, बढ़ती ज्यों चन्द्रकला॥
चिनगी सी कलियाँ खिली और हर फुनगी लाल फूल दहके॥<br />
+
 
<br />
+
चम्पई चाँदनी भी बीती, अनुराग-भरी ऊषा आई।
सूखी थीं नसें, बहा उनमें फिर बूँद-बूँद कर नया खून।<br />
+
जब हरित-पीत पल्लव वन में लौ-सी पलाश-लाली छाई॥
भर गया उजाला ड़ालों में खिल उठे नये जीवन-प्रसून॥<br />
+
 
<br />
+
पतझर की सूखी शाखों में लग गयी आग, शोले लहके।
अब हुई सुबह, चमकी कलगी, दमके मखमली लाल शोले।<br />
+
चिनगी सी कलियाँ खिली और हर फुनगी लाल फूल दहके॥
फूले टेसू-बस इतना ही समझे पर देहाती भोले॥<br />
+
 
<br />
+
सूखी थीं नसें, बहा उनमें फिर बूँद-बूँद कर नया खून।
लो, डाल डाल से उठी लपट! लो डाल डाल फूले पलाश।<br /> 
+
भर गया उजाला ड़ालों में खिल उठे नये जीवन-प्रसून॥
यह है बसंत की आग, लगा दे आग, जिसे छू ले पलाश॥<br />
+
 
<br />
+
अब हुई सुबह, चमकी कलगी, दमके मखमली लाल शोले।
लग गयी आग; बन में पलाश, नभ में पलाश, भू पर पलाश।<br />
+
फूले टेसू-बस इतना ही समझे पर देहाती भोले॥
लो, चली फाग; हो गयी हवा भी रंगभरी छू कर पलाश॥<br />
+
 
<br />
+
लो, डाल डाल से उठी लपट! लो डाल डाल फूले पलाश।  
आते यों, आएँगे फिर भी वन में मधुऋतु-पतझार कई।<br />
+
यह है बसंत की आग, लगा दे आग, जिसे छू ले पलाश॥
मरकत-प्रवाल की छाया में होगी सब दिन गुंजार नयी॥<br />
+
 
 +
लग गयी आग; बन में पलाश, नभ में पलाश, भू पर पलाश।
 +
लो, चली फाग; हो गयी हवा भी रंगभरी छू कर पलाश॥
 +
 
 +
आते यों, आएँगे फिर भी वन में मधुऋतु-पतझड़ कई।
 +
मरकत-प्रवाल की छाया में होगी सब दिन गुंजार नयी॥
 +
</poem>

18:03, 9 अक्टूबर 2009 का अवतरण

आया था हरे भरे वन में पतझर, पर वह भी बीत चला।
कोंपलें लगीं, जो लगीं नित्य बढ़नें, बढ़ती ज्यों चन्द्रकला॥

चम्पई चाँदनी भी बीती, अनुराग-भरी ऊषा आई।
जब हरित-पीत पल्लव वन में लौ-सी पलाश-लाली छाई॥

पतझर की सूखी शाखों में लग गयी आग, शोले लहके।
चिनगी सी कलियाँ खिली और हर फुनगी लाल फूल दहके॥

सूखी थीं नसें, बहा उनमें फिर बूँद-बूँद कर नया खून।
भर गया उजाला ड़ालों में खिल उठे नये जीवन-प्रसून॥

अब हुई सुबह, चमकी कलगी, दमके मखमली लाल शोले।
फूले टेसू-बस इतना ही समझे पर देहाती भोले॥

लो, डाल डाल से उठी लपट! लो डाल डाल फूले पलाश।
यह है बसंत की आग, लगा दे आग, जिसे छू ले पलाश॥

लग गयी आग; बन में पलाश, नभ में पलाश, भू पर पलाश।
लो, चली फाग; हो गयी हवा भी रंगभरी छू कर पलाश॥

आते यों, आएँगे फिर भी वन में मधुऋतु-पतझड़ कई।
मरकत-प्रवाल की छाया में होगी सब दिन गुंजार नयी॥