भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सुई और तागे के बीच में / केदारनाथ सिंह" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: माँ मेरे अकेलेपन के बारे में सोच रही है<br /> पानी गिर नहीं रहा<br /> पर ग...)
 
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
माँ मेरे अकेलेपन के बारे में सोच रही है<br />
+
{{KKGlobal}}
पानी गिर नहीं रहा<br />
+
{{KKRachna
पर गिर सकता है किसी भी समय<br />
+
|रचनाकार=केदारनाथ सिंह
मुझे बाहर जाना है<br />
+
}}
और माँ चुप है कि मुझे बाहर जाना है<br />
+
<poem>
<br />
+
माँ मेरे अकेलेपन के बारे में सोच रही है
यह तय है<br />
+
पानी गिर नहीं रहा
कि मैं बाहर जाउंगा तो माँ को भूल जाउंगा<br />
+
पर गिर सकता है किसी भी समय
जैसे मैं भूल जाउंगा उसकी कटोरी<br />
+
मुझे बाहर जाना है
उसका गिलास<br />
+
और माँ चुप है कि मुझे बाहर जाना है
वह सफ़ेद साडी जिसमें काली किनारी है<br />
+
 
मैं एकदम भूल जाउँगा<br />
+
यह तय है
जिसे इस समूची दुनियाँ में माँ<br />
+
कि मैं बाहर जाउंगा तो माँ को भूल जाउंगा
और सिर्फ मेरी माँ पहनती है<br />
+
जैसे मैं भूल जाऊँगा उसकी कटोरी
<br />
+
उसका गिलास
उसके बाद सर्दियाँ आ जायेंगी<br />
+
वह सफ़ेद साड़ी जिसमें काली किनारी है
और मैने देखा है कि सर्दियाँ जब भी आती हैं<br />
+
मैं एकदम भूल जाऊँगा
तो माँ थोडा और झुक जाती है<br />
+
जिसे इस समूची दुनिया में माँ
अपनी परछाई की तरफ<br />
+
और सिर्फ मेरी माँ पहनती है
ऊन के बारे में उसके विचार<br />
+
 
बहुत सख्त है<br />
+
उसके बाद सर्दियाँ आ जायेंगी
मृत्यु के बारे में बेहद कोमल<br />
+
और मैंने देखा है कि सर्दियाँ जब भी आती हैं
पक्षियों के बारे में<br />
+
तो माँ थोड़ा और झुक जाती है
वह कभी कुछ नहीं कहती<br />
+
अपनी परछाई की तरफ
हाँलाकि नींद में<br />
+
उन के बारे में उसके विचार
वह खुद एक पक्षी की तरह लगती है<br />
+
बहुत सख़्त है
<br />
+
मृत्यु के बारे में बेहद कोमल
जब वह बहुत ज्यादा थक जाती है<br />
+
पक्षियों के बारे में
तो उठा लेती है सुई और तागा<br />
+
वह कभी कुछ नहीं कहती
मैंने देखा है कि जब सब सो जाते हैं<br />
+
हालाँकि नींद में
तो सूई चलाने वाले उसके हाँथ<br />
+
वह खुद एक पक्षी की तरह लगती है
देर रात तक<br />
+
 
समय को धीरे धीरे सिलते हैं<br />
+
जब वह बहुत ज्यादा थक जाती है
जैसे वह मेरा फ़टा हुआ कुर्ता हो<br />
+
तो उठा लेती है सुई और तागा
<br />
+
मैंने देखा है कि जब सब सो जाते हैं
पिछले साठ बरसों से<br />
+
तो सुई चलाने वाले उसके हाथ
एक सूई और तागे के बीच<br />
+
देर रात तक
दबी हुई है माँ<br />
+
समय को धीरे-धीरे सिलते हैं
हालांकि वह खुद एक करघा है<br />
+
जैसे वह मेरा फ़टा हुआ कुर्ता हो
जिस पर साठ बरस बुने गये हैं<br />
+
 
धीरे धीरे तह पर तह<br />
+
पिछले साठ बरसों से
खूब मोटे और गझिन और खुरदुरे<br />
+
एक सुई और तागे के बीच
साठ बरस<br />
+
दबी हुई है माँ
 +
हालाँकि वह खुद एक करघा है
 +
जिस पर साठ बरस बुने गये हैं
 +
धीरे-धीरे तह पर तह
 +
खूब मोटे और गझिन और खुरदुरे
 +
साठ बरस
 +
</poem>

18:49, 9 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण

माँ मेरे अकेलेपन के बारे में सोच रही है
पानी गिर नहीं रहा
पर गिर सकता है किसी भी समय
मुझे बाहर जाना है
और माँ चुप है कि मुझे बाहर जाना है

यह तय है
कि मैं बाहर जाउंगा तो माँ को भूल जाउंगा
जैसे मैं भूल जाऊँगा उसकी कटोरी
उसका गिलास
वह सफ़ेद साड़ी जिसमें काली किनारी है
मैं एकदम भूल जाऊँगा
जिसे इस समूची दुनिया में माँ
और सिर्फ मेरी माँ पहनती है

उसके बाद सर्दियाँ आ जायेंगी
और मैंने देखा है कि सर्दियाँ जब भी आती हैं
तो माँ थोड़ा और झुक जाती है
अपनी परछाई की तरफ
उन के बारे में उसके विचार
बहुत सख़्त है
मृत्यु के बारे में बेहद कोमल
पक्षियों के बारे में
वह कभी कुछ नहीं कहती
हालाँकि नींद में
वह खुद एक पक्षी की तरह लगती है

जब वह बहुत ज्यादा थक जाती है
तो उठा लेती है सुई और तागा
मैंने देखा है कि जब सब सो जाते हैं
तो सुई चलाने वाले उसके हाथ
देर रात तक
समय को धीरे-धीरे सिलते हैं
जैसे वह मेरा फ़टा हुआ कुर्ता हो

पिछले साठ बरसों से
एक सुई और तागे के बीच
दबी हुई है माँ
हालाँकि वह खुद एक करघा है
जिस पर साठ बरस बुने गये हैं
धीरे-धीरे तह पर तह
खूब मोटे और गझिन और खुरदुरे
साठ बरस