"बढ़ई और चिड़िया / केदारनाथ सिंह" के अवतरणों में अंतर
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| − | बाहर लाती थी | + | बाहर लाती थी |
| − | और दाना हर बार उसके दाँतों से छूट कर | + | और दाना हर बार उसके दाँतों से छूट कर |
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| − | और दुनियाँ | + | और दुनियाँ |
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| − | वह चीर रहा था | + | वह चीर रहा था |
| − | और चिड़िया खुद लकड़ी के अंदर | + | और चिड़िया खुद लकड़ी के अंदर |
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18:53, 9 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण
वह लकड़ी चीर रहा था
कई रातों तक
जंगल की नमी में रहने के बाद उसने फैसला किया था
और वह चीर रहा था
उसकी आरी कई बार लकड़ी की नींद
और जड़ों में भटक जाती थी
कई बार एक चिड़िया के खोंते से
टकरा जाती थी उसकी आरी
उसे लकड़ी में
गिलहरी के पूँछ की हरकत महसूस हो रही थी
एक गुर्राहट थी
एक बाघिन के बच्चे सो रहे थे लकड़ी के अंदर
एक चिड़िया का दाना गायब हो गया था
उसकी आरी हर बार
चिड़िया के दाने को
लकड़ी के कटते हुए रेशों से खींच कर
बाहर लाती थी
और दाना हर बार उसके दाँतों से छूट कर
गायब हो जाता था
वह चीर रहा था
और दुनियाँ
दोनों तरफ़
चिरे हुए पटरों की तरह गिरती जा रही थी
दाना बाहर नहीं था
इस लिये लकड़ी के अंदर ज़रूर कहीं होगा
यह चिड़िया का ख़्याल था
वह चीर रहा था
और चिड़िया खुद लकड़ी के अंदर
कहीं थी
और चीख रही थी।
