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"सखा के प्रति / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"" के अवतरणों में अंतर

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मैंने, समझा, कहीं नहीं सुख, है यह तनु-धारण ही व्यर्थ,
 
मैंने, समझा, कहीं नहीं सुख, है यह तनु-धारण ही व्यर्थ,
 
उतना ही दुख है जितना ही ऊँचा है तव हृदय समर्थ।
 
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हे सहृदय, निस्वार्थ प्रेम के! नहीं तुम्हारा जग में स्थान,
 
हे सहृदय, निस्वार्थ प्रेम के! नहीं तुम्हारा जग में स्थान,
 
लौह-पिण्ड जो चोटें सहता, मर्मर के अति-कोमल प्राण
 
लौह-पिण्ड जो चोटें सहता, मर्मर के अति-कोमल प्राण
 
उन चोटों को सह सकते क्या? होओ जड़वत, नीचाधार,
 
उन चोटों को सह सकते क्या? होओ जड़वत, नीचाधार,
 
मधु-मुख, गरल-हृदय, निजता-रत, मिथ्यापर, देगा संसार
 
मधु-मुख, गरल-हृदय, निजता-रत, मिथ्यापर, देगा संसार
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जगह तुम्हें तब। विद्यार्जन के लिए प्राण-पण से अतिपात
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अर्द्ध आयु का किया, फिरा फिर पागल-सा फैलाये हाथ
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प्राण-रहित छाया के पीछे लुब्ध प्रेम का, विविध निषेध--
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विधियाँ की हैं धर्म-प्राप्ति को, गंगा-तट, श्मशान, गत-खेद,
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नदी-तीर, पर्वत-गह्वर फिर; भिक्षाटन में समय अपार
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पार किया असहाय, छिन्न कौपीन जीर्ण अम्बर तनु धार
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द्वार-द्वार फिर, उदर-पूर्ति कर, भग्न शरीर तपस्या-भार--
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धारण से, पर अर्जित क्या पाया है मैंने अन्तर-सार--
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सुनो, सत्य जो जीवन में मैंने समझा है-यह संसार
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घोर तरंगाघात-क्षुब्ध है--एक नाव जो करती पार,--
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तन्त्र, मन्त्र, नियमन प्राणों का, मत अनेक, दर्शन-विज्ञान,
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त्याग-भोग, भ्रम घोर बुद्धि का, ’प्रेम प्रेम’ धन को पहचान
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जीव-ब्रह्म-नर-निर्जर-ईश्वर-प्रेत-पिशाच-भूत-बैताल-
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पशु-पक्षी-कीटाणुकीट में यही प्रेम अन्तर-तम-ज्वाल।
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देव, देव! वह और कौन है, कहो चलाता सबको कौन?
  
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--माँ को पुत्र के लिये देता प्राण,--दस्यु हरता है, मौन
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प्रेरण एक प्रेम का ही। वे हैं मन-वाणी से अज्ञात--
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वे ही सुख-दुख में रहती हैं--शक्ति मृत्यु-रूपा अवदात,
  
 
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22:47, 12 अक्टूबर 2009 का अवतरण

रोग स्वास्थ्य में, सुख में दुख, है अन्धकार में जहाँ प्रकाश,
शिशु के प्राणों का साक्षी है रोदन जहाँ वहाँ क्या आश
सुख की करते हो तुम, मतिमन?--छिड़ा हुआ है रण अविराम
घोर द्वन्द्व का; यहाँ पुत्र को पिता भी नहीं देता स्थान।
गूँज रहा रव घोर स्वार्थ का, यहाँ शान्ति का मुक्ताकार
कहाँ? नरक प्रत्यक्ष स्वर्ग है; कौन छोड़ सकता संसार?
कर्म-पाश से बँधा गला, वह क्रीतदास जाये किस ठौर?
सोचा, समझा है मैंने, पर एक उपाय न देखा और,
योग-भोग, जप-तप, धन-संचय, गार्हस्थ्याश्रम, दृढ़ सन्यास,
त्याग-तपस्या-व्रत सब देखा, पाया है जो मर्माभास
मैंने, समझा, कहीं नहीं सुख, है यह तनु-धारण ही व्यर्थ,
उतना ही दुख है जितना ही ऊँचा है तव हृदय समर्थ।

हे सहृदय, निस्वार्थ प्रेम के! नहीं तुम्हारा जग में स्थान,
लौह-पिण्ड जो चोटें सहता, मर्मर के अति-कोमल प्राण
उन चोटों को सह सकते क्या? होओ जड़वत, नीचाधार,
मधु-मुख, गरल-हृदय, निजता-रत, मिथ्यापर, देगा संसार
जगह तुम्हें तब। विद्यार्जन के लिए प्राण-पण से अतिपात
अर्द्ध आयु का किया, फिरा फिर पागल-सा फैलाये हाथ
प्राण-रहित छाया के पीछे लुब्ध प्रेम का, विविध निषेध--
विधियाँ की हैं धर्म-प्राप्ति को, गंगा-तट, श्मशान, गत-खेद,
नदी-तीर, पर्वत-गह्वर फिर; भिक्षाटन में समय अपार
पार किया असहाय, छिन्न कौपीन जीर्ण अम्बर तनु धार
द्वार-द्वार फिर, उदर-पूर्ति कर, भग्न शरीर तपस्या-भार--
धारण से, पर अर्जित क्या पाया है मैंने अन्तर-सार--
सुनो, सत्य जो जीवन में मैंने समझा है-यह संसार
घोर तरंगाघात-क्षुब्ध है--एक नाव जो करती पार,--
तन्त्र, मन्त्र, नियमन प्राणों का, मत अनेक, दर्शन-विज्ञान,
त्याग-भोग, भ्रम घोर बुद्धि का, ’प्रेम प्रेम’ धन को पहचान
जीव-ब्रह्म-नर-निर्जर-ईश्वर-प्रेत-पिशाच-भूत-बैताल-
पशु-पक्षी-कीटाणुकीट में यही प्रेम अन्तर-तम-ज्वाल।
देव, देव! वह और कौन है, कहो चलाता सबको कौन?

--माँ को पुत्र के लिये देता प्राण,--दस्यु हरता है, मौन
प्रेरण एक प्रेम का ही। वे हैं मन-वाणी से अज्ञात--
वे ही सुख-दुख में रहती हैं--शक्ति मृत्यु-रूपा अवदात,