"नाचे उस पर श्यामा / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"" के अवतरणों में अंतर
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" |संग्रह=अनामिका / सू…) |
|||
पंक्ति 26: | पंक्ति 26: | ||
कितने वर्णों का आभार। | कितने वर्णों का आभार। | ||
+ | धरा-अधर धारण करते हैं,-- | ||
+ | रँग के रागों के आकार | ||
+ | देख देख भावुक-जन-मन में | ||
+ | जगते कितने भाव उदार! | ||
+ | |||
+ | गरज रहे हैं मेघ, अशनिका | ||
+ | गूँजा घोर निनाद-प्रमाद, | ||
+ | स्वर्गधराव्यापी संगर का | ||
+ | छाया विकट कटक-उन्माद | ||
+ | |||
+ | अन्धकार उदगीरण करता | ||
+ | अन्धकार घन-घोर अपार | ||
+ | महाप्रलय की वायु सुनाती | ||
+ | श्वासों में अगणित हुंकार | ||
+ | |||
+ | इस पर चमक रही है रक्तिम | ||
+ | विद्युज्ज्वाला बारम्बार | ||
+ | फेनिल लहरें गरज चाहतीं | ||
+ | करना गिर-शिखरों को पार, | ||
+ | |||
+ | भीम-घोष-गम्भीर, अतल धँस | ||
+ | टलमल करती धरा अधीर, | ||
+ | अनल निकलता छेद भूमितल, | ||
+ | चूर हो रहे अचल-शरीर। | ||
+ | |||
+ | हैं सुहावने मन्दिर कितने | ||
+ | नील-सलिल-सर-वीचि-विलास- | ||
+ | वलयित कुवलय, खेल खिलानी | ||
+ | मलय वनज-वन-यौवन-हास। | ||
+ | |||
+ | बढ़ा रहा है अंगूरों का | ||
+ | हृदय-रुधिर प्याले का प्यार, | ||
+ | फेन-शुभ्र-सिर उठे बुलबुले | ||
+ | मन्द-मन्द करते गुंजार। | ||
+ | |||
+ | बजती है श्रुति-पथ में वीणा, | ||
+ | तारों की कोमल झंकार | ||
+ | ताल-ताल पर चली बढ़ाती | ||
+ | ललित वासना का संसार। | ||
+ | |||
+ | भावों में क्या जाने कितना | ||
+ | व्रज का प्रकट प्रेम उच्छ्वास, | ||
+ | आँसू ढ्लते, विरह-ताप से | ||
+ | तप्त गोपिकाओं के श्वास; | ||
</poem> | </poem> |
23:24, 12 अक्टूबर 2009 का अवतरण
फूले फूल सुरभि-व्याकुल अलि
गूँज रहे हैं चारों ओर
जगतीतल में सकल देवता
भरते शशिमृदु-हँसी-हिलोर।
गन्ध-मन्द-गति मलय पवन है
खोल रही स्मृतियों के द्वार,
ललित-तरंग नदी-नद सरसी,
चल-शतदल पर भ्रमर-विहार।
दूर गुहा में निर्झरिणी की
तान-तरंगों का गुंजार,
स्वरमय किसलय-निलय विहंगों
के बजते सुहाग के तार।
तरुण-चितेरा अरुण बढा कर
स्वर्ण-तूलिका-कर सुकुमार
पट-पृथिवी पर रखता है जब,
कितने वर्णों का आभार।
धरा-अधर धारण करते हैं,--
रँग के रागों के आकार
देख देख भावुक-जन-मन में
जगते कितने भाव उदार!
गरज रहे हैं मेघ, अशनिका
गूँजा घोर निनाद-प्रमाद,
स्वर्गधराव्यापी संगर का
छाया विकट कटक-उन्माद
अन्धकार उदगीरण करता
अन्धकार घन-घोर अपार
महाप्रलय की वायु सुनाती
श्वासों में अगणित हुंकार
इस पर चमक रही है रक्तिम
विद्युज्ज्वाला बारम्बार
फेनिल लहरें गरज चाहतीं
करना गिर-शिखरों को पार,
भीम-घोष-गम्भीर, अतल धँस
टलमल करती धरा अधीर,
अनल निकलता छेद भूमितल,
चूर हो रहे अचल-शरीर।
हैं सुहावने मन्दिर कितने
नील-सलिल-सर-वीचि-विलास-
वलयित कुवलय, खेल खिलानी
मलय वनज-वन-यौवन-हास।
बढ़ा रहा है अंगूरों का
हृदय-रुधिर प्याले का प्यार,
फेन-शुभ्र-सिर उठे बुलबुले
मन्द-मन्द करते गुंजार।
बजती है श्रुति-पथ में वीणा,
तारों की कोमल झंकार
ताल-ताल पर चली बढ़ाती
ललित वासना का संसार।
भावों में क्या जाने कितना
व्रज का प्रकट प्रेम उच्छ्वास,
आँसू ढ्लते, विरह-ताप से
तप्त गोपिकाओं के श्वास;