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"नाचे उस पर श्यामा / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"" के अवतरणों में अंतर

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आँसू ढ्लते, विरह-ताप से
 
आँसू ढ्लते, विरह-ताप से
 
तप्त गोपिकाओं के श्वास;
 
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नीरज-नील नयन, बिम्बाधर
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जिस युवती के अति सुकुमार;
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उमड़ रहा जिसकी आंखों पर
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मृदु भावों का पारावार,
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बढ़ा हाथ दोनों मिलने को
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चलती प्रकट प्रेम-अभिसार,
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प्राण-पखेरू, प्रेम-पींजरा,
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बन्द, बन्द है उसका द्वार!
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झेरी झररर-झरर, दमामें
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घोर नकारों की है चोप,
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कड़-कड़-कड़ सन-सन बन्दूकें,
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अररर अररर अररर तोप,
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धूम-धूम है भीम रणस्थल,
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शत-शत ज्वालामुखियाँ घोर
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आग उगलतीं, दहक दहक दह
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कपाँ रहीं भू-नभ के छोर।
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फटते, लगते हैं छाती पर
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घाती गोले सौ-सौ बार,
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उड़ जाते हैं कितने हाथी,
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कितने घोड़े और सवार।
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थर-थर पृथ्वी थर्राती है,
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लाखों घोड़े कस तैयार
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करते, चढ़ते, बढ़ते-अड़ते
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झुक पड़ते हैं वीर जुझार।
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भेद धूम-तल--अनल, प्रबल दल
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चीर गोलियों की बौछार,
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आगे आगे फहराती है
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साथ साथ पैदल-दल चलता,
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रण-मद-मतवाले सब वीर,
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छुटी पताका, गिरा वीर जब,
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लेता पकड़ अपर रणधीर,
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14:25, 13 अक्टूबर 2009 का अवतरण

फूले फूल सुरभि-व्याकुल अलि
गूँज रहे हैं चारों ओर
जगतीतल में सकल देवता
भरते शशिमृदु-हँसी-हिलोर।

गन्ध-मन्द-गति मलय पवन है
खोल रही स्मृतियों के द्वार,
ललित-तरंग नदी-नद सरसी,
चल-शतदल पर भ्रमर-विहार।

दूर गुहा में निर्झरिणी की
तान-तरंगों का गुंजार,
स्वरमय किसलय-निलय विहंगों
के बजते सुहाग के तार।

तरुण-चितेरा अरुण बढा कर
स्वर्ण-तूलिका-कर सुकुमार
पट-पृथिवी पर रखता है जब,
कितने वर्णों का आभार।

धरा-अधर धारण करते हैं,--
रँग के रागों के आकार
देख देख भावुक-जन-मन में
जगते कितने भाव उदार!

गरज रहे हैं मेघ, अशनिका
गूँजा घोर निनाद-प्रमाद,
स्वर्गधराव्यापी संगर का
छाया विकट कटक-उन्माद

अन्धकार उदगीरण करता
अन्धकार घन-घोर अपार
महाप्रलय की वायु सुनाती
श्वासों में अगणित हुंकार

इस पर चमक रही है रक्तिम
विद्युज्ज्वाला बारम्बार
फेनिल लहरें गरज चाहतीं
करना गिर-शिखरों को पार,

भीम-घोष-गम्भीर, अतल धँस
टलमल करती धरा अधीर,
अनल निकलता छेद भूमितल,
चूर हो रहे अचल-शरीर।

हैं सुहावने मन्दिर कितने
नील-सलिल-सर-वीचि-विलास-
वलयित कुवलय, खेल खिलानी
मलय वनज-वन-यौवन-हास।

बढ़ा रहा है अंगूरों का
हृदय-रुधिर प्याले का प्यार,
फेन-शुभ्र-सिर उठे बुलबुले
मन्द-मन्द करते गुंजार।

बजती है श्रुति-पथ में वीणा,
तारों की कोमल झंकार
ताल-ताल पर चली बढ़ाती
ललित वासना का संसार।

भावों में क्या जाने कितना
व्रज का प्रकट प्रेम उच्छ्वास,
आँसू ढ्लते, विरह-ताप से
तप्त गोपिकाओं के श्वास;

नीरज-नील नयन, बिम्बाधर
जिस युवती के अति सुकुमार;
उमड़ रहा जिसकी आंखों पर
मृदु भावों का पारावार,

बढ़ा हाथ दोनों मिलने को
चलती प्रकट प्रेम-अभिसार,
प्राण-पखेरू, प्रेम-पींजरा,
बन्द, बन्द है उसका द्वार!

झेरी झररर-झरर, दमामें
घोर नकारों की है चोप,
कड़-कड़-कड़ सन-सन बन्दूकें,
अररर अररर अररर तोप,

धूम-धूम है भीम रणस्थल,
शत-शत ज्वालामुखियाँ घोर
आग उगलतीं, दहक दहक दह
कपाँ रहीं भू-नभ के छोर।

फटते, लगते हैं छाती पर
घाती गोले सौ-सौ बार,
उड़ जाते हैं कितने हाथी,
कितने घोड़े और सवार।

थर-थर पृथ्वी थर्राती है,
लाखों घोड़े कस तैयार
करते, चढ़ते, बढ़ते-अड़ते
झुक पड़ते हैं वीर जुझार।

भेद धूम-तल--अनल, प्रबल दल
चीर गोलियों की बौछार,
धँस गोलों-ओलों में लाते
छीन तोक कर वेड़ी मार;

आगे आगे फहराती है
ध्वजा वीरता की पहचान,
झरती धारा--रुधिर दण्ड में
अड़े पड़े पर वीर जवान;

साथ साथ पैदल-दल चलता,
रण-मद-मतवाले सब वीर,
छुटी पताका, गिरा वीर जब,
लेता पकड़ अपर रणधीर,