"नाचे उस पर श्यामा / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"" के अवतरणों में अंतर
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तपन-ताप-मध्यान्ह प्रखरता | तपन-ताप-मध्यान्ह प्रखरता | ||
से नाता जो लेगा जोड़? | से नाता जो लेगा जोड़? | ||
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चण्ड दिवाकर ही तो भरता | चण्ड दिवाकर ही तो भरता | ||
शशघर में कर-कोमल-प्राण, | शशघर में कर-कोमल-प्राण, | ||
किन्तु कलाधर को ही देता | किन्तु कलाधर को ही देता | ||
− | सारा | + | सारा विश्व प्रेम-सम्मान! |
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+ | सुख के हेतु सभी हैं पागल, | ||
+ | दुख से किस पामर का प्यार? | ||
+ | सुख में है दुख, गरल अमृत में, | ||
+ | देखो, बता रहा संसार। | ||
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+ | सुख-दुख का यह निरा हलाहल | ||
+ | भरा कण्ठ तक सदा अधीर, | ||
+ | रोते मानव, पर आशा का | ||
+ | नहीं छोड़ते चंचल चीर! | ||
+ | |||
+ | रुद्र रूप से सब डरते हैं, | ||
+ | देख देख भरते हैं आह, | ||
+ | मृत्युरूपिणी मुक्तकुन्तला | ||
+ | माँ की नहीं किसी को चाह! | ||
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+ | उष्णधार उद्गार रुधिर का | ||
+ | करती है जो बारम्बार, | ||
+ | भीम भुजा की, बीन छीनती, | ||
+ | वह जंगी नंगी तलवार। | ||
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+ | मृत्यु-स्वरूपे माँ, है तू ही | ||
+ | सत्य स्वरूपा, सत्याधार; | ||
+ | काली, सुख-वनमाली तेरी | ||
+ | माया छाया का संसार! | ||
+ | |||
+ | अये--कालिके, माँ करालिके, | ||
+ | शीघ्र मर्म का कर उच्छेद, | ||
+ | इस शरीर का प्रेम-भाव, यह | ||
+ | सुख-सपना, माया, कर भेद! | ||
+ | |||
+ | तुझे मुण्डमाला पहनाते, | ||
+ | फिर भय खाते तकते लोग, | ||
+ | ’दयामयी’ कह कह चिल्लाते, | ||
+ | माँ, दुनिया का देखा ढोंग। | ||
+ | |||
+ | प्राण काँपते अट्टहास सुन | ||
+ | दिगम्बरा का लख उल्लास, | ||
+ | अरे भयातुर; असुर विजयिनी | ||
+ | कह रह जाता, खाता त्रास! | ||
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+ | मुँह से कहता है, देखेगा, | ||
+ | पर माँ, जब आता है काल, | ||
+ | कहाँ भाग जाता भय खाकर | ||
+ | तेरा देख बदन विकराल! | ||
+ | |||
+ | माँ, तू मृत्यु घूमती रहती, | ||
+ | उत्कट व्याधि, रोग बलवान, | ||
+ | भर विष-घड़े, पिलाती है तू | ||
+ | घूँट जहर के, लेती प्राण। | ||
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23:23, 13 अक्टूबर 2009 का अवतरण
फूले फूल सुरभि-व्याकुल अलि
गूँज रहे हैं चारों ओर
जगतीतल में सकल देवता
भरते शशिमृदु-हँसी-हिलोर।
गन्ध-मन्द-गति मलय पवन है
खोल रही स्मृतियों के द्वार,
ललित-तरंग नदी-नद सरसी,
चल-शतदल पर भ्रमर-विहार।
दूर गुहा में निर्झरिणी की
तान-तरंगों का गुंजार,
स्वरमय किसलय-निलय विहंगों
के बजते सुहाग के तार।
तरुण-चितेरा अरुण बढा कर
स्वर्ण-तूलिका-कर सुकुमार
पट-पृथिवी पर रखता है जब,
कितने वर्णों का आभार।
धरा-अधर धारण करते हैं,--
रँग के रागों के आकार
देख देख भावुक-जन-मन में
जगते कितने भाव उदार!
गरज रहे हैं मेघ, अशनिका
गूँजा घोर निनाद-प्रमाद,
स्वर्गधराव्यापी संगर का
छाया विकट कटक-उन्माद
अन्धकार उदगीरण करता
अन्धकार घन-घोर अपार
महाप्रलय की वायु सुनाती
श्वासों में अगणित हुंकार
इस पर चमक रही है रक्तिम
विद्युज्ज्वाला बारम्बार
फेनिल लहरें गरज चाहतीं
करना गिर-शिखरों को पार,
भीम-घोष-गम्भीर, अतल धँस
टलमल करती धरा अधीर,
अनल निकलता छेद भूमितल,
चूर हो रहे अचल-शरीर।
हैं सुहावने मन्दिर कितने
नील-सलिल-सर-वीचि-विलास-
वलयित कुवलय, खेल खिलानी
मलय वनज-वन-यौवन-हास।
बढ़ा रहा है अंगूरों का
हृदय-रुधिर प्याले का प्यार,
फेन-शुभ्र-सिर उठे बुलबुले
मन्द-मन्द करते गुंजार।
बजती है श्रुति-पथ में वीणा,
तारों की कोमल झंकार
ताल-ताल पर चली बढ़ाती
ललित वासना का संसार।
भावों में क्या जाने कितना
व्रज का प्रकट प्रेम उच्छ्वास,
आँसू ढ्लते, विरह-ताप से
तप्त गोपिकाओं के श्वास;
नीरज-नील नयन, बिम्बाधर
जिस युवती के अति सुकुमार;
उमड़ रहा जिसकी आंखों पर
मृदु भावों का पारावार,
बढ़ा हाथ दोनों मिलने को
चलती प्रकट प्रेम-अभिसार,
प्राण-पखेरू, प्रेम-पींजरा,
बन्द, बन्द है उसका द्वार!
झेरी झररर-झरर, दमामें
घोर नकारों की है चोप,
कड़-कड़-कड़ सन-सन बन्दूकें,
अररर अररर अररर तोप,
धूम-धूम है भीम रणस्थल,
शत-शत ज्वालामुखियाँ घोर
आग उगलतीं, दहक दहक दह
कपाँ रहीं भू-नभ के छोर।
फटते, लगते हैं छाती पर
घाती गोले सौ-सौ बार,
उड़ जाते हैं कितने हाथी,
कितने घोड़े और सवार।
थर-थर पृथ्वी थर्राती है,
लाखों घोड़े कस तैयार
करते, चढ़ते, बढ़ते-अड़ते
झुक पड़ते हैं वीर जुझार।
भेद धूम-तल--अनल, प्रबल दल
चीर गोलियों की बौछार,
धँस गोलों-ओलों में लाते
छीन तोक कर वेड़ी मार;
आगे आगे फहराती है
ध्वजा वीरता की पहचान,
झरती धारा--रुधिर दण्ड में
अड़े पड़े पर वीर जवान;
साथ साथ पैदल-दल चलता,
रण-मद-मतवाले सब वीर,
छुटी पताका, गिरा वीर जब,
लेता पकड़ अपर रणधीर,
पटे खेत अगणित लाशों से
कटे हजारों वीर जवान,
डटे लाश पर पैर जमाये,
हटे न वीर छोड़ मैदान।
देह चाहता है सुख-संगम
चित्त-विहंगम स्वर-मधु-धार,
हँसी-हिंडोला झूल चाहता
मन जाना दुख-सागर-पार!
हिम-शशांक का किरण-अंग-सुख
कहो, कौन जो देगा छोड़-
तपन-ताप-मध्यान्ह प्रखरता
से नाता जो लेगा जोड़?
चण्ड दिवाकर ही तो भरता
शशघर में कर-कोमल-प्राण,
किन्तु कलाधर को ही देता
सारा विश्व प्रेम-सम्मान!
सुख के हेतु सभी हैं पागल,
दुख से किस पामर का प्यार?
सुख में है दुख, गरल अमृत में,
देखो, बता रहा संसार।
सुख-दुख का यह निरा हलाहल
भरा कण्ठ तक सदा अधीर,
रोते मानव, पर आशा का
नहीं छोड़ते चंचल चीर!
रुद्र रूप से सब डरते हैं,
देख देख भरते हैं आह,
मृत्युरूपिणी मुक्तकुन्तला
माँ की नहीं किसी को चाह!
उष्णधार उद्गार रुधिर का
करती है जो बारम्बार,
भीम भुजा की, बीन छीनती,
वह जंगी नंगी तलवार।
मृत्यु-स्वरूपे माँ, है तू ही
सत्य स्वरूपा, सत्याधार;
काली, सुख-वनमाली तेरी
माया छाया का संसार!
अये--कालिके, माँ करालिके,
शीघ्र मर्म का कर उच्छेद,
इस शरीर का प्रेम-भाव, यह
सुख-सपना, माया, कर भेद!
तुझे मुण्डमाला पहनाते,
फिर भय खाते तकते लोग,
’दयामयी’ कह कह चिल्लाते,
माँ, दुनिया का देखा ढोंग।
प्राण काँपते अट्टहास सुन
दिगम्बरा का लख उल्लास,
अरे भयातुर; असुर विजयिनी
कह रह जाता, खाता त्रास!
मुँह से कहता है, देखेगा,
पर माँ, जब आता है काल,
कहाँ भाग जाता भय खाकर
तेरा देख बदन विकराल!
माँ, तू मृत्यु घूमती रहती,
उत्कट व्याधि, रोग बलवान,
भर विष-घड़े, पिलाती है तू
घूँट जहर के, लेती प्राण।