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"नैरंगे रोज़गार में कैफ़े - दवाम देख / फ़िराक़ गोरखपुरी" के अवतरणों में अंतर

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23:27, 13 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण

नैरंगे-रोज़गार<ref>ज़माने की रंगारंगी में</ref> में कैफ़े-दवाम<ref>सदा रहने वाली मस्ती</ref> देख
साक़ी की मस्त आँख से गर्दिश में जाम देख।

क़ुदरत की सैर कर तेरे होशो-जुनूँ की ख़ैर
ये गुलसिताने सुब्‍ह, ये सहरा-ए-शाम देख।

बस इक निगाह हासिले-बज़्मे-निशात है
रू-ए-निगारो-मौजे-मये-लालाफ़ाम देख।

बे जुंबिशे-नज़र के हैं ये पुरसिशे-नेहाँ
ये ख़ास अदा-ए-हुस्न ब‍अन्दाज़े-आम देख।

रानाई-ए-ख़याल को समझा वेसाले-दोस्त
ये ज़ोमे-इश्क़ देख ये सौदा-ए-ख़ाम देख।

उठती है चश्मे-साक़िये-मयख़ाना बज़्म पर
ये वक़्त वो नहीं कि हलालो-हराम देख।

ज़ुल्मतसरा-ए-दह्‌र में कुछ रौशनी सी है
इक रात कारवाने-अदम का क़याम देख।

यूँ ही नहीं हैं नरगिसे-राना की गर्दिशें
हर दौर, हर सुकूने-नज़र, हर क़याम देख।

महरूमियाँ न देख दिले-तश्‍नाकाम की
बज़्मे-निशात, जलव-ए-मय, छलके जाम देख।

है मौजे-नूर गंगो-जमन जाम साक़िया
ये रात, ये मुक़ाम, ये माहे-तमाम देख।

चश्‍मे-सियाहकार मिटाती है मिट भी जा
हश्रे-हयात<ref>जीवन का अन्जाम</ref> देख, लबों के पयाम देख।

उस ज़ुल्फ़े-ख़म-बख़म में है शामें-अबद की सैर
सुब्‍हे-अलस्त देख नज़र का पयाम देख।

क्या देखता है ग़फ़लतो-होश उस निगाह के
ग़फ़िल, हयाते-ग़म की फ़ना-ओ-दवाम देख।

कल तक खुला न था मेरे दिल का मुआमिला
आज अपने सोज़ो-दर्द को बेनंगो - नाम देख।

दुनिया को देख ले कि वो दुनिया नहीं रही
बर्क़े निगाह का असरे - नातमाम देख।

ख़ाबे - गराँने - रंजो - ग़मे - रोज़गार से
जाग और जल्वाहा-ए-निशाते - दवाम देख।

बेकस नहीं है इश्क़ बहुत, ऐ निगाहे-यार!
क्या तुझको मेरे दर्द से तू अपना काम देख।

हर साँस मौजे-बादा-ए-सरजोश है ’फ़िराक़’
हस्ती को मावरा-ए-फ़ना-ओ-दवाम देख।

शब्दार्थ
<references/>

--अमित १७:५७, १३ अक्टूबर २००९ (UTC)