"गाता हूँ गीत मैं तुम्हें ही सुनाने को / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"" के अवतरणों में अंतर
पंक्ति 60: | पंक्ति 60: | ||
मन्द-मन्द पवन तुम्हारा आलाप है; | मन्द-मन्द पवन तुम्हारा आलाप है; | ||
सत्य है यह सब कथा, | सत्य है यह सब कथा, | ||
+ | अति स्थूल--अति स्थूल वाह्य यह विकास है | ||
+ | केश जैसे शिर पर। | ||
+ | |||
+ | योजनों तक फैला हुआ | ||
+ | हिम से अच्छादित | ||
+ | मेरु-तट पर है महागिरि, | ||
+ | अग्रभेदी बहु श्रृंग | ||
+ | अभ्रहीन नभ में उठे, | ||
+ | दृष्टि झुलसाती हुई हिम की शिलाएँ वे, | ||
+ | दिद्युत-विकास से है शतगुण प्रखर ज्योति; | ||
+ | उत्तर अयन में उस | ||
+ | एकीभूत कर की सहस्र ज्योति-रेखाएं | ||
+ | कोटि-वज्र-सम-खर-कर-धार जब ढालती हैं, | ||
+ | एक एक श्रृंग पर | ||
+ | मूर्च्छित हुए-से भुवन-भास्कर हैं दीखते, | ||
+ | गलता है हिम-श्रृंग | ||
+ | टपकता है गुहा में, | ||
+ | घोर नाद करता हुआ | ||
+ | टूट पड़ता है गिरि, | ||
+ | स्वप्न-सम जल-बिम्ब जल में मिल जाता है। | ||
+ | मन की सब वृत्तियाँ एक ही हो जातीं जब, | ||
+ | फैलता है कोटि-सूर्य-निन्दित सत-चित-प्रकाश, | ||
+ | गल जाते भानु, शशधर और तारादल,-- | ||
+ | विश्व-व्योममण्डल-चंदातल-पाताल भी, | ||
+ | ब्रह्माण्ड गोपद-समान जान पडता है। | ||
+ | दूर जाता है जब मन वाह्यभूमि के, | ||
+ | होता है शान्त धातु, | ||
+ | निश्चल होता है सत्य; | ||
+ | तन्त्रियाँ हृदय की तब ढीली पड़ जाती हैं, | ||
+ | खुल जाते बन्धन समूह, जाते माया-मोह, | ||
+ | गूँजता तुम्हारा अनाहत-नाद जो वहाँ, | ||
+ | सुनता है दास यह भक्तिपूर्वक नतमस्तक, | ||
+ | तत्पर सदाही वह | ||
+ | पूर्ण करने को जो कुछ भी हो तुम्हारा कार्य। | ||
+ | |||
+ | "मैं ही तब विद्यमान; | ||
+ | प्रलय के समय में जब | ||
+ | ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञाता-लय | ||
</poem> | </poem> |
00:05, 14 अक्टूबर 2009 का अवतरण
गाता हूँ गीत मैं तुम्हें ही सुनाने को;
भले और बुरे की,
लोकनिन्दा यश-कथा की
नहीं परवाह मुझे;
दास तुम दोनों का
सशक्तिक चरणों में प्रणाम हैं तुम्हारे देव!
पीछे खड़े रहते हो,
इसी लिये हास्य-मुख
देखता हूँ बार बार मुड़ मुड़ कर।
बार बार गाता मैं
भय नहीं खाता कभी,
जन्म और मृत्यु मेरे पैरों पर लोटते हैं।
दया के सागर हो तुम;
दस जन्म जन्म का तुम्हारा मैं हूँ प्रभो!
क्या गति तुम्हारी, नहीं जानता,
अपनी गति, वह भी नहीं,
कौन चाहता भी है जानने को?
भुक्ति-मुक्ति-भक्ति आदि जितने हैं--
जप-तप-साधन-भजन,
आज्ञा से तुम्हारी मैंने दूर इन्हें कर दिया।
एकमात्र आशा पहचान की ही है लगी,
इससे भी करो पार!
देखते हैं नेत्र ये सारा संसार,
नहीं देखते हैं अपने को,
देखें भी क्यों, कहो,
देखते वे अपना रूप
देख दूसरे का मुख।
नेत्र मेरे तुम्हीं हो,
तूप तुम्हारा ही घट घट में है विद्यमान।
बालकेलि करता हूँ तुम्हारे साथ,
क्रोध करके कभी,
तुमसे किनारा कर दूर चला जाता हूँ;
किन्तु निशाकाल में,
देखता हूँ,
शय्या-शिरोभाग में खड़े तुम चुपचाप,
छलछल आँखें,
हेरते हो मेरे मुख की ओर एक-टक।
बदल जाता है भाव,
पैरों पड़ता हूँ,
किन्तु क्षमा नहीं मांगता;
नहीं करते हो रोष।
ऐसी प्रगल्भता
और कोई कैसे कहो सहन कर सकता है?
तुम मेरे प्रभु हो,
प्राण-सखा मेरे तुम;
कभी देखता हूँ--
"तुम मैं हो, मैं तुम बना,
वाणी तुम, वीणापाणि मेरे कण्ठ में प्रभो,
ऊर्मि से तुम्हारी वह जाते हैं नर-नारी।"
सिन्धुनाद हुंकार,
सूर्य-चन्द में वचन,
मन्द-मन्द पवन तुम्हारा आलाप है;
सत्य है यह सब कथा,
अति स्थूल--अति स्थूल वाह्य यह विकास है
केश जैसे शिर पर।
योजनों तक फैला हुआ
हिम से अच्छादित
मेरु-तट पर है महागिरि,
अग्रभेदी बहु श्रृंग
अभ्रहीन नभ में उठे,
दृष्टि झुलसाती हुई हिम की शिलाएँ वे,
दिद्युत-विकास से है शतगुण प्रखर ज्योति;
उत्तर अयन में उस
एकीभूत कर की सहस्र ज्योति-रेखाएं
कोटि-वज्र-सम-खर-कर-धार जब ढालती हैं,
एक एक श्रृंग पर
मूर्च्छित हुए-से भुवन-भास्कर हैं दीखते,
गलता है हिम-श्रृंग
टपकता है गुहा में,
घोर नाद करता हुआ
टूट पड़ता है गिरि,
स्वप्न-सम जल-बिम्ब जल में मिल जाता है।
मन की सब वृत्तियाँ एक ही हो जातीं जब,
फैलता है कोटि-सूर्य-निन्दित सत-चित-प्रकाश,
गल जाते भानु, शशधर और तारादल,--
विश्व-व्योममण्डल-चंदातल-पाताल भी,
ब्रह्माण्ड गोपद-समान जान पडता है।
दूर जाता है जब मन वाह्यभूमि के,
होता है शान्त धातु,
निश्चल होता है सत्य;
तन्त्रियाँ हृदय की तब ढीली पड़ जाती हैं,
खुल जाते बन्धन समूह, जाते माया-मोह,
गूँजता तुम्हारा अनाहत-नाद जो वहाँ,
सुनता है दास यह भक्तिपूर्वक नतमस्तक,
तत्पर सदाही वह
पूर्ण करने को जो कुछ भी हो तुम्हारा कार्य।
"मैं ही तब विद्यमान;
प्रलय के समय में जब
ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञाता-लय