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"मित्राक्षर / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर
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− | मैं तो उसे भाषे, क्रूर मानता हूँ सर्वथा | + | <poem> |
− | दु:ख तुम्हें देने के लिए है गढ़ी जिसने | + | मैं तो उसे भाषे, क्रूर मानता हूँ सर्वथा |
− | मित्राक्षर-बेड़ी। हा ! पहनने से इसने | + | दु:ख तुम्हें देने के लिए है गढ़ी जिसने |
− | दी है सदा कोमल पदों में कितनी व्यथा ! | + | मित्राक्षर-बेड़ी। हा ! पहनने से इसने |
− | जल उठता है यह सोच मेरा जी प्रिये, | + | दी है सदा कोमल पदों में कितनी व्यथा ! |
− | भाव-रत्न-हीन था क्या दीन उसका हिया, | + | जल उठता है यह सोच मेरा जी प्रिये, |
− | झूठे ही सुहाग में भुलाने भर के लिए | + | भाव-रत्न-हीन था क्या दीन उसका हिया, |
− | उसने तुम्हें जो यह तुच्छ गहना दिया ? | + | झूठे ही सुहाग में भुलाने भर के लिए |
− | रँगने से लाभ क्या है फुल्ल शतदल के ? | + | उसने तुम्हें जो यह तुच्छ गहना दिया ? |
− | चन्द्रकला-उज्जवला है आप नीलाकाश में। | + | रँगने से लाभ क्या है फुल्ल शतदल के ? |
− | मन्त्रपूत करने से लाभ गंगा-जल के ? | + | चन्द्रकला-उज्जवला है आप नीलाकाश में। |
− | गन्ध ढालना है व्यर्थ पारिजात-वास में। | + | मन्त्रपूत करने से लाभ गंगा-जल के ? |
− | प्रतिमा प्रकृति की-सी कविता असल के | + | गन्ध ढालना है व्यर्थ पारिजात-वास में। |
+ | प्रतिमा प्रकृति की-सी कविता असल के | ||
चीनी वधू-तुल्य पद क्यों हों लौह-पाश में ? | चीनी वधू-तुल्य पद क्यों हों लौह-पाश में ? | ||
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09:35, 17 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण
मैं तो उसे भाषे, क्रूर मानता हूँ सर्वथा
दु:ख तुम्हें देने के लिए है गढ़ी जिसने
मित्राक्षर-बेड़ी। हा ! पहनने से इसने
दी है सदा कोमल पदों में कितनी व्यथा !
जल उठता है यह सोच मेरा जी प्रिये,
भाव-रत्न-हीन था क्या दीन उसका हिया,
झूठे ही सुहाग में भुलाने भर के लिए
उसने तुम्हें जो यह तुच्छ गहना दिया ?
रँगने से लाभ क्या है फुल्ल शतदल के ?
चन्द्रकला-उज्जवला है आप नीलाकाश में।
मन्त्रपूत करने से लाभ गंगा-जल के ?
गन्ध ढालना है व्यर्थ पारिजात-वास में।
प्रतिमा प्रकृति की-सी कविता असल के
चीनी वधू-तुल्य पद क्यों हों लौह-पाश में ?