भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"गिरिराज / सोहनलाल द्विवेदी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
 
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
[[Category:सोहनलाल द्विवेदी]]
+
{{KKGlobal}}
[[Category:कविताएँ]]
+
{{KKRachna
{{KKSandarbh
+
|रचनाकार=सोहनलाल द्विवेदी
|लेखक=सोहनलाल द्विवेदी
+
|पुस्तक=
+
|प्रकाशक=
+
|वर्ष=
+
|पृष्ठ=
+
 
}}
 
}}
 +
{{KKCatKavita}}
 +
<poem>
 +
यह है भारत का शुभ्र मुकुट
 +
यह है भारत का उच्च भाल,
 +
सामने अचल जो खड़ा हुआ
 +
हिमगिरि विशाल, गिरिवर विशाल! 
  
यह है भारत का शुभ्र मुकुट<br>
+
कितना उज्ज्वल, कितना शीतल
यह है भारत का उच्च भाल,<br>
+
कितना सुन्दर इसका स्वरूप?
सामने अचल जो खड़ा हुआ<br>
+
है चूम रहा गगनांगन को
हिमगिरि विशाल, गिरिवर विशाल!<br><br>
+
इसका उन्नत मस्तक अनूप!
  
कितना उज्ज्वल, कितना शीतल<br>
+
है मानसरोवर यहीं कहीं
कितना सुन्दर इसका स्वरूप?<br>
+
जिसमें मोती चुगते मराल,  
है चूम रहा गगनांगन को<br>
+
हैं यहीं कहीं कैलास शिखर
इसका उन्नत मस्तक अनूप!<br><br>
+
जिसमें रहते शंकर कृपाल!
  
है मानसरोवर यहीं कहीं<br>
+
युग युग से यह है अचल खड़ा
जिसमें मोती चुगते मराल,<br>
+
बनकर स्वदेश का शुभ्र छत्र!
हैं यहीं कहीं कैलास शिखर<br>
+
इसके अँचल में बहती हैं  
जिसमें रहते शंकर कृपाल!<br><br>
+
गंगा सजकर नवफूल पत्र!
  
युग युग से यह है अचल खड़ा<br>
+
इस जगती में जितने गिरि हैं  
बनकर स्वदेश का शुभ्र छत्र!<br>
+
सब झुक करते इसको प्रणाम,
इसके अँचल में बहती हैं<br>
+
गिरिराज यही, नगराज यही
गंगा सजकर नवफूल पत्र!<br><br>
+
जननी का गौरव गर्व–धाम!
  
इस जगती में जितने गिरि हैं<br>
+
इस पार हमारा भारत है,  
सब झुक करते इसको प्रणाम,<br>
+
उस पार चीन–जापान देश  
गिरिराज यही, नगराज यही<br>
+
मध्यस्थ खड़ा है दोनों में
जननी का गौरव गर्व–धाम!<br><br>
+
एशिया खंड का यह नगेश!  
 
+
</poem>
इस पार हमारा भारत है,<br>
+
उस पार चीन–जापान देश<br>
+
मध्यस्थ खड़ा है दोनों में <br>
+
एशिया खंड का यह नगेश! <br><br>
+

09:51, 17 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण

यह है भारत का शुभ्र मुकुट
यह है भारत का उच्च भाल,
सामने अचल जो खड़ा हुआ
हिमगिरि विशाल, गिरिवर विशाल!

कितना उज्ज्वल, कितना शीतल
कितना सुन्दर इसका स्वरूप?
है चूम रहा गगनांगन को
इसका उन्नत मस्तक अनूप!

है मानसरोवर यहीं कहीं
जिसमें मोती चुगते मराल,
हैं यहीं कहीं कैलास शिखर
जिसमें रहते शंकर कृपाल!

युग युग से यह है अचल खड़ा
बनकर स्वदेश का शुभ्र छत्र!
इसके अँचल में बहती हैं
गंगा सजकर नवफूल पत्र!

इस जगती में जितने गिरि हैं
सब झुक करते इसको प्रणाम,
गिरिराज यही, नगराज यही
जननी का गौरव गर्व–धाम!

इस पार हमारा भारत है,
उस पार चीन–जापान देश
मध्यस्थ खड़ा है दोनों में
एशिया खंड का यह नगेश!