[[Category:सोहनलाल द्विवेदी]][[Category:कविताएँ]]{{KKGlobal}}{{KKSandarbhKKRachna|लेखकरचनाकार=सोहनलाल द्विवेदी|पुस्तक=वासंती|प्रकाशक=इंडियन प्रेस प्राइवेट लिमिटेड, इलाहाबाद|वर्ष=|पृष्ठ=
}}
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<poem>
प्रबल झंझावत में तू
बन अचल हिमवान रे मन।
प्रबल झंझावत हो बनी गम्भीर रजनी, सूझती हो न अवनी, ढल न अस्ताचल अतल में तू <br> बन अचल हिमवान सुवर्ण विहान रे मन। <br><br>
उठ रही हो बनी गम्भीर रजनी,<br>सिन्धु लहरी सूझती हो न अवनी, <br>मिलती थाह गहरी ढल न अस्ताचल अतल में <br>नील नीरधि का अकेला बन सुवर्ण विहान सुभग जलयान रे मन। <br><br>
उठ रही हो सिन्धु लहरी <br>हो न मिलती थाह गहरी <br>नील नीरधि का अकेला <br>बन सुभग जलयान रे मन। <br><br> कमल कलियाँ संकुचित हो,<br>रश्मियाँ भी बिछलती हो,<br>तू तुषार गुहा गहन में <br> बन मधुप की तान रे मन। <br><br/poem>