"साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / समर्पण / निवेदन" के अवतरणों में अंतर
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− | परित्राणाय साधूनां, विनाशाय च दुष्कृतम्, धर्म संस्थापनार्थाय, सम्भवामि युगे युगे। | + | |
− | इदं पवित्रं पापघ्नं पुण्य वेदैश्च सम्मितम् यः पठेद्रामचरितं सर्वपापैः प्रमुच्यते। | + | "परित्राणाय साधूनां, विनाशाय च दुष्कृतम्, |
− | त्रेतायां वर्त्तमानायां कालः कृतसमोsभवत्, रामे राजनि धर्मज्ञे सर्वभूत सुखावहे। | + | धर्म संस्थापनार्थाय, सम्भवामि युगे युगे।" |
− | निर्दोषमभवत्सर्वमाविष्कृतगुणं जगत्, अन्वागादिव हि स्वर्गो गां गतं पुरुषोत्तमम्। | + | |
− | कल्पभेद हरि चरित सुहाए, भांति अनेक मुनीसन गाए। | + | "इदं पवित्रं पापघ्नं पुण्य वेदैश्च सम्मितम् |
− | हरि अनंत, हरि कथा अनंता; कहहिं, सुनहिं, समुझहिं स्रुति-संता। | + | यः पठेद्रामचरितं सर्वपापैः प्रमुच्यते।" |
− | रामचरित जे सुनत अघाहीं, रस विसेष जाना तिन्ह नाहीं। | + | |
− | भरि लोचन विलोक अवधेसा, तब सुनिहों निरगुन उपदेसा। | + | "त्रेतायां वर्त्तमानायां कालः कृतसमोsभवत्, |
+ | रामे राजनि धर्मज्ञे सर्वभूत सुखावहे।" | ||
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आचार्य पूज्य द्विवेदीजी महाराज के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करना मानो उनकी कृपा मूल्य निर्धारित करने की ढिठाई करना है। वे मुझे न अपनाते तो मैं आज इस प्रकार, आप लोगों के समझ खड़े होने में भी समर्थ होता या नहीं, कौन कह सकता है।- | आचार्य पूज्य द्विवेदीजी महाराज के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करना मानो उनकी कृपा मूल्य निर्धारित करने की ढिठाई करना है। वे मुझे न अपनाते तो मैं आज इस प्रकार, आप लोगों के समझ खड़े होने में भी समर्थ होता या नहीं, कौन कह सकता है।- | ||
− | ''करते तुलसीदास भी कैसे मानस-नाद?-'' | + | ''करते तुलसीदास भी कैसे मानस-नाद?-'' |
− | ''महावीर का यदि उन्हें मिलता नहीं प्रसाद। '' | + | ''महावीर का यदि उन्हें मिलता नहीं प्रसाद। '' |
विज्ञवर बार्हस्पत्यजी महोदय ने आरंभ से ही अपनी मार्मिक सम्मतियों से इस विषय में मुझे कृतार्थ किया है। अपनी शक्ति के अनुसार उनसे जितना लाभ मैं उठा सका, उसी को अपना सौभाग्य मानता हूं। | विज्ञवर बार्हस्पत्यजी महोदय ने आरंभ से ही अपनी मार्मिक सम्मतियों से इस विषय में मुझे कृतार्थ किया है। अपनी शक्ति के अनुसार उनसे जितना लाभ मैं उठा सका, उसी को अपना सौभाग्य मानता हूं। | ||
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समर्थ सहायकों को पाकर भी अपने दोषों के लिए मैं उनकी ओट नहीं ले सकता। किसी की सहायता से लाभ उठा ले जाने में भी तो एक क्षमता चाहिए। अपने मन के अनुकूल होते हुए भी कोई कोई बात कहकर भी मैं नहीं कह सका। जैसे नवम सर्ग में ऊर्मिला का चित्रकूट-संबंधी यह संस्मरण- | समर्थ सहायकों को पाकर भी अपने दोषों के लिए मैं उनकी ओट नहीं ले सकता। किसी की सहायता से लाभ उठा ले जाने में भी तो एक क्षमता चाहिए। अपने मन के अनुकूल होते हुए भी कोई कोई बात कहकर भी मैं नहीं कह सका। जैसे नवम सर्ग में ऊर्मिला का चित्रकूट-संबंधी यह संस्मरण- | ||
− | ''मंझली मां से मिल गई क्षमा तुम्हें क्या नाथ?'' | + | ''मंझली मां से मिल गई क्षमा तुम्हें क्या नाथ?'' |
− | ''पीठ ठोककर ही प्रिये, मानें, मां के हाथ।'' | + | ''पीठ ठोककर ही प्रिये, मानें, मां के हाथ।'' |
परंतु इसी के साथ ऐसा भी प्रसंग आया है कि मुझे स्वयं अपने मन के प्रतिकूल ऊर्मिला का यह कथन लिखना पड़ा है- | परंतु इसी के साथ ऐसा भी प्रसंग आया है कि मुझे स्वयं अपने मन के प्रतिकूल ऊर्मिला का यह कथन लिखना पड़ा है- | ||
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यों तो "साकेत" दो वर्ष पूर्व ही पूरा हो चुका था; परंतु नवम सर्ग में तब भी कुछ शेष रह गया था और मेरी भावना के अनुसार आज भी यह अधूरा है। यह भी अच्छा ही है। मैं चाहता था कि मेरे साहित्यिक जीवन के साथ ही "साकेत" की समाप्ति हो। परंतु जब ऐसा नहीं हो सका, तब ऊर्मिला की निम्नोक्त आशा-निराशामयी उक्तियों के साथ उनका क्रम बनाए रखना ही मुझे उचित जान पड़ता है- | यों तो "साकेत" दो वर्ष पूर्व ही पूरा हो चुका था; परंतु नवम सर्ग में तब भी कुछ शेष रह गया था और मेरी भावना के अनुसार आज भी यह अधूरा है। यह भी अच्छा ही है। मैं चाहता था कि मेरे साहित्यिक जीवन के साथ ही "साकेत" की समाप्ति हो। परंतु जब ऐसा नहीं हो सका, तब ऊर्मिला की निम्नोक्त आशा-निराशामयी उक्तियों के साथ उनका क्रम बनाए रखना ही मुझे उचित जान पड़ता है- | ||
− | ''कमल, तुम्हारा दिन है और कुमुद, यामिनी तुम्हारी है,'' | + | ''कमल, तुम्हारा दिन है और कुमुद, यामिनी तुम्हारी है,'' |
− | ''कोई हताश क्यों हो, आती सबती समान वारी है। '' | + | ''कोई हताश क्यों हो, आती सबती समान वारी है। '' |
ध्न्य कमल, दिन जिसके, धन्य कुमुदल रात साथ में जिसके, दिन और रात दोनों होते हैं हाय! हाथ में किसके? | ध्न्य कमल, दिन जिसके, धन्य कुमुदल रात साथ में जिसके, दिन और रात दोनों होते हैं हाय! हाथ में किसके? | ||
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- मैथिलीशरण गुप्त 1988 | - मैथिलीशरण गुप्त 1988 | ||
− | + | जय देवमंदिर- देहली | |
− | नृप-हेममुद्रा और | + | ::सम-भाव से जिस पर चढ़ी,-- |
− | मुनि-सत्य-सौरभ की कली- कवि-कल्पना जिसमें बढ़ी, | + | ::::नृप-हेममुद्रा और रंक-वराटिका। |
− | फूले-फले साहित्य की वह वाटिका। | + | मुनि-सत्य-सौरभ की कली- |
+ | ::कवि-कल्पना जिसमें बढ़ी, | ||
+ | ::::फूले-फले साहित्य की वह वाटिका। | ||
राम, तुम मानव हो? ईश्वर नहीं हो क्या? | राम, तुम मानव हो? ईश्वर नहीं हो क्या? | ||
विश्व में रमे हुए नहीं सभी कहीं हो क्या? | विश्व में रमे हुए नहीं सभी कहीं हो क्या? | ||
− | तब मैं निरीश्वर | + | तब मैं निरीश्वर हूँ, ईश्वर क्षमा करे; |
तुम न रमो तो मन तुममें रमा करे। | तुम न रमो तो मन तुममें रमा करे। | ||
− | '''मंगलाचरण''' | + | '''मंगलाचरण''' |
− | जयत कुमार-अभियोग-गिरा गौरी-प्रति, स - गण गिरीश जिसे सुन मुसकाते हैं- | + | जयत कुमार-अभियोग-गिरा गौरी-प्रति, |
− | "देखो अंब, ये हेरंब मानस के तीर पर तुंदिल शरीर एक ऊधम मचाते हैं। | + | ::स - गण गिरीश जिसे सुन मुसकाते हैं- |
− | गोद भरे मोदक धरे हैं, सविनोद उन्हें सूंड़ से उठाकर मुझे देने को दिखाते हैं, | + | "देखो अंब, ये हेरंब मानस के तीर पर |
− | देते नहीं, कंदुक-सा ऊपर उछालते हैं, ऊपर ही | + | ::तुंदिल शरीर एक ऊधम मचाते हैं। |
+ | गोद भरे मोदक धरे हैं, सविनोद उन्हें | ||
+ | ::सूंड़ से उठाकर मुझे देने को दिखाते हैं, | ||
+ | देते नहीं, कंदुक-सा ऊपर उछालते हैं, | ||
+ | ::ऊपर ही झेल कर, खेल कर खाते हैं!" | ||
− | '''श्रीगणेशायनमः''' | + | '''श्रीगणेशायनमः''' |
− | [[साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / प्रथम सर्ग / पृष्ठ १]] | + | [[साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / प्रथम सर्ग / पृष्ठ १]] |
20:18, 18 अक्टूबर 2009 का अवतरण
साकेत
राम, तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है।
कोई कवि बन जाय, सहज संभाव्य है।
लेखक: श्री मैथिलीशरण गुप्त
समर्पण
पितः, आज उसको हुए अष्टाविंशति वर्ष,
दीपावली - प्रकाश में जब तुम गए सहर्ष।
भूल गए बहु दुख-सुख, निरानंद-आनंद;
शैशव में तुमसे सुने याद रहे ये छंद -
"हम चाकर रघुवर के, पटौ लिखौ दरबार;
अब तुलसी का होहिंगे नर के मनसबदार?
तुलसी अपने राम को रीझ भजो कै खीज,
उलटो-सूधो ऊगि है खेत परे को बीज।
बनें सो रघुवर सों बनें, कै बिगरे भरपूर;
तुलसी बनें जो और सों, ता बनिबे में घूर।
चातक सुतहिं सिखावहीं, आन धर्म जिन लेहु;
मेरे कुल की बानि है स्वाँति बूँद सों नेहु।"
स्वयं तुम्हारा वह कथन भूला नहीं ललाम-
"वहां कल्पना भी सफल, जहां हमारे राम।"
तुमने इस जन के लिए क्या क्या किया न हाय!
बना तुम्हारी तृप्ति का मुझसे कौन उपाय?
तुम दयालु थे, दे गए कविता का वरदान।
उसके फल का पिंड यह लो निज प्रभु गुणगान।
आज श्राद्ध के दिन तुम्हें, श्रद्धा-भक्ति-समेत,
अर्पण करता हूं यही निज कवि-धन 'साकेत'।
अनुचर-
मैथिलीशरण
दीपावली 1988
"परित्राणाय साधूनां, विनाशाय च दुष्कृतम्,
धर्म संस्थापनार्थाय, सम्भवामि युगे युगे।"
"इदं पवित्रं पापघ्नं पुण्य वेदैश्च सम्मितम्
यः पठेद्रामचरितं सर्वपापैः प्रमुच्यते।"
"त्रेतायां वर्त्तमानायां कालः कृतसमोsभवत्,
रामे राजनि धर्मज्ञे सर्वभूत सुखावहे।"
"निर्दोषमभवत्सर्वमाविष्कृतगुणं जगत्,
अन्वागादिव हि स्वर्गो गां गतं पुरुषोत्तमम्।"
"कल्पभेद हरि चरित सुहाए,
भांति अनेक मुनीसन गाए।"
"हरि अनंत, हरि कथा अनंता;
कहहिं, सुनहिं, समुझहिं स्रुति-संता।"
"रामचरित जे सुनत अघाहीं,
रस विसेष जाना तिन्ह नाहीं।"
"भरि लोचन विलोक अवधेसा,
तब सुनिहों निरगुन उपदेसा।"
== निवेदन ==
इच्छा थी कि सबके अंत में, अपने सहृदय पाठकों और साहित्यिक बंधुओं के सम्मुख "साकेत" समुपस्थित करके अपनी धृष्टता और चपलता के लिए क्षमा-याचना पूर्वक बिदा लूंगा। परंतु जो जो लिखना चाहता था, वह आज भी नहीं लिखा जा सका और शरीर शिथिल हो पड़ा। अतएव, आज ही उस अभिलाषा को पूर्ण कर लेना उचित समझता हूं।
परंतु फिर भी मेरे मन की न हुई। मेरे अनुज श्रीसियारामशरण मुझे अवकाश नहीं लेने देना चाहते। वे छोटे हैं, इसलिए मुझ पर उनका बड़ा अधिकार है। तथापि, यदि अब मैं कुछ लिख सका तो वह उन्हीं की बेगार होगी।
उनकी अनुरोध-रक्षा में मुझे संतोष ही होगा। परंतु यदि मुझे पहले ही इस स्थिति की संभावना होती तो मैं इसे और भी पहले पूरा करने का प्रयत्न करता और मेरे कृपालु पाठकों को इतनी प्रतीक्षा न करनी पड़ती। निस्संदेह पंद्रह-सोलह वर्ष बहुत होते हैं तथापि इस बीच में इसमें अनेक फेर-फार हुए हैं और ऐसा होना स्वाभाविक ही था।
आचार्य पूज्य द्विवेदीजी महाराज के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करना मानो उनकी कृपा मूल्य निर्धारित करने की ढिठाई करना है। वे मुझे न अपनाते तो मैं आज इस प्रकार, आप लोगों के समझ खड़े होने में भी समर्थ होता या नहीं, कौन कह सकता है।-
करते तुलसीदास भी कैसे मानस-नाद?-
महावीर का यदि उन्हें मिलता नहीं प्रसाद।
विज्ञवर बार्हस्पत्यजी महोदय ने आरंभ से ही अपनी मार्मिक सम्मतियों से इस विषय में मुझे कृतार्थ किया है। अपनी शक्ति के अनुसार उनसे जितना लाभ मैं उठा सका, उसी को अपना सौभाग्य मानता हूं।
भाई कृष्णदास, अजमेरी और सियारामशरण की प्रेरणाएं और उनकी सहायताएं मुझे प्राप्त हुईं तो ऐसा होना उचित ही था स्वयं वे ही मुझे प्राप्त हुए हैं।
"साकेत" के प्रकाशित अंशों को देख-सुन कर जिन मित्रों ने मुझे उत्साहित किया है, मैं हृदय से उनका आभारी हूं। खेद है, उनमें से गणेशशंकर जैसा बंधु अब नहीं।
समर्थ सहायकों को पाकर भी अपने दोषों के लिए मैं उनकी ओट नहीं ले सकता। किसी की सहायता से लाभ उठा ले जाने में भी तो एक क्षमता चाहिए। अपने मन के अनुकूल होते हुए भी कोई कोई बात कहकर भी मैं नहीं कह सका। जैसे नवम सर्ग में ऊर्मिला का चित्रकूट-संबंधी यह संस्मरण-
मंझली मां से मिल गई क्षमा तुम्हें क्या नाथ?
पीठ ठोककर ही प्रिये, मानें, मां के हाथ।
परंतु इसी के साथ ऐसा भी प्रसंग आया है कि मुझे स्वयं अपने मन के प्रतिकूल ऊर्मिला का यह कथन लिखना पड़ा है-
मेरे उपवन के हरिण, आज वनचारी।
मन ने चाहा कि इसे यों कर दिया जाए -
मेरे मानसे के हंस, आज वनचारी।
परंतु इसे मेरे ब्रह्म ने स्वीकार नहीं किया। क्यों, मैं स्वयं नहीं जानता!
ऊर्मिला के विरह-वर्णन की विचार-धारा में भी मैंने स्वच्छंदता से काम लिया है।
यों तो "साकेत" दो वर्ष पूर्व ही पूरा हो चुका था; परंतु नवम सर्ग में तब भी कुछ शेष रह गया था और मेरी भावना के अनुसार आज भी यह अधूरा है। यह भी अच्छा ही है। मैं चाहता था कि मेरे साहित्यिक जीवन के साथ ही "साकेत" की समाप्ति हो। परंतु जब ऐसा नहीं हो सका, तब ऊर्मिला की निम्नोक्त आशा-निराशामयी उक्तियों के साथ उनका क्रम बनाए रखना ही मुझे उचित जान पड़ता है-
कमल, तुम्हारा दिन है और कुमुद, यामिनी तुम्हारी है,
कोई हताश क्यों हो, आती सबती समान वारी है।
ध्न्य कमल, दिन जिसके, धन्य कुमुदल रात साथ में जिसके, दिन और रात दोनों होते हैं हाय! हाथ में किसके?
- मैथिलीशरण गुप्त 1988
जय देवमंदिर- देहली
सम-भाव से जिस पर चढ़ी,--
नृप-हेममुद्रा और रंक-वराटिका।
मुनि-सत्य-सौरभ की कली-
कवि-कल्पना जिसमें बढ़ी,
फूले-फले साहित्य की वह वाटिका।
राम, तुम मानव हो? ईश्वर नहीं हो क्या?
विश्व में रमे हुए नहीं सभी कहीं हो क्या?
तब मैं निरीश्वर हूँ, ईश्वर क्षमा करे;
तुम न रमो तो मन तुममें रमा करे।
मंगलाचरण
जयत कुमार-अभियोग-गिरा गौरी-प्रति,
स - गण गिरीश जिसे सुन मुसकाते हैं-
"देखो अंब, ये हेरंब मानस के तीर पर
तुंदिल शरीर एक ऊधम मचाते हैं।
गोद भरे मोदक धरे हैं, सविनोद उन्हें
सूंड़ से उठाकर मुझे देने को दिखाते हैं,
देते नहीं, कंदुक-सा ऊपर उछालते हैं,
ऊपर ही झेल कर, खेल कर खाते हैं!"
श्रीगणेशायनमः
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / प्रथम सर्ग / पृष्ठ १