"कुरुक्षेत्र / द्वितीय सर्ग / भाग 1" के अवतरणों में अंतर
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19:33, 21 अगस्त 2008 का अवतरण
आयी हुई मृत्यु से कहा अजेय भीष्म ने कि
- 'योग नहीं जाने का अभी है, इसे जानकर,
रुकी रहो पास कहीं'; और स्वयं लेट गये
- बाणों का शयन, बाण का ही उपधान कर!
व्यास कहते हैं, रहे यों ही वे पड़े विमुक्त,
- काल के करों से छीन मुष्टि-गत प्राण कर।
और पंथ जोहती विनीत कहीं आसपास
- हाथ जोड़ मृत्यु रही खड़ी शास्ति मान कर।
श्रृंग चढ जीवन के आर-पार हेरते-से
- योगलीन लेटे थे पितामह गंभीर-से।
देखा धर्मराज ने, विभा प्रसन्न फैल रही
- श्वेत शिरोरुह, शर-ग्रथित शरीर-से।
करते प्रणाम, छूते सिर से पवित्र पद,
- उँगली को धोते हुए लोचनों के नीर से,
"हाय पितामह, महाभारत विफल हुआ"
- चीख उठे धर्मराज व्याकुल, अधीर-से।
"वीर-गति पाकर सुयोधन चला गया है,
- छोड़ मेरे सामने अशेष ध्वंस का प्रसार;
छोड़ मेरे हाथ में शरीर निज प्राणहीन,
- व्योम में बजाता जय-दुन्दुभि-सा बार-बार;
और यह मृतक शरीर जो बचा है शेष,
- चुप-चुप, मानो, पूछता है मुझसे पुकार-
विजय का एक उपहार मैं बचा हूँ, बोलो,
- जीत किसकी है और किसकी हुई है हार?
"हाय, पितामह, हार किसकी हुई है यह?
- ध्वन्स-अवशेष पर सिर धुनता है कौन?
कौन भस्नराशि में विफल सुख ढूँढता है?
- लपटों से मुकुट क पट बुनता है कौन?
और बैठ मानव की रक्त-सरिता के तीर
- नियति के व्यंग-भरे अर्थ गुनता है कौन?
कौन देखता है शवदाह बन्धु-बान्धवों का?
- उत्तरा का करुण विलाप सुनता है कौन?
"जानता कहीं जो परिणाम महाभारत का,
- तन-बल छोड़ मैं मनोबल से लड़ता;
तप से, सहिष्णुता से, त्याग से सुयोधन को
- जीत, नयी नींव इतिहास कि मैं धरता।
और कहीं वज्र गलता न मेरी आह से जो,
- मेरे तप से नहीं सुयोधन सुधरता;
तो भी हाय, यह रक्त-पात नहीं करता मैं,
- भाइयों के संग कहीं भीख माँग मरता।
"किन्तु, हाय, जिस दिन बोया गया युद्ध-बीज,
- साथ दिया मेर नहीं मेरे दिव्य ज्ञान ने;
उलत दी मति मेरी भीम की गदा ने और
- पार्थ के शरासन ने, अपनी कृपान ने;
और जब अर्जुन को मोह हुआ रण-बीच,
- बुझती शिखा में दिया घृत भगवान ने;
सबकी सुबुद्धि पितामह, हाय, मारी गयी,
- सबको विनष्ट किया एक अभिमान ने।