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"कुरुक्षेत्र / द्वितीय सर्ग / भाग 1" के अवतरणों में अंतर

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:हाथ जोड़ मृत्यु रही खड़ी शास्ति मान कर।<br><br>
 
:हाथ जोड़ मृत्यु रही खड़ी शास्ति मान कर।<br><br>
  
श्रृंग चढ जीवन के आर-पार हेरते-से<br>
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::::श्रृंग चढ जीवन के आर-पार हेरते-से<br>
:योगलीन लेटे थे पितामह गंभीर-से।<br>
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देखा धर्मराज ने, विभा प्रसन्न फैल रही<br>
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करते प्रणाम, छूते सिर से पवित्र पद,<br>
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:उँगली को धोते हुए लोचनों के नीर से,<br>
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"हाय पितामह, महाभारत विफल हुआ"<br>
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::::"हाय पितामह, महाभारत विफल हुआ"<br>
:चीख उठे धर्मराज व्याकुल, अधीर-से।<br><br>
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"वीर-गति पाकर सुयोधन चला गया है,<br>
 
"वीर-गति पाकर सुयोधन चला गया है,<br>

20:02, 21 अगस्त 2008 का अवतरण


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आयी हुई मृत्यु से कहा अजेय भीष्म ने कि

'योग नहीं जाने का अभी है, इसे जानकर,

रुकी रहो पास कहीं'; और स्वयं लेट गये

बाणों का शयन, बाण का ही उपधान कर!

व्यास कहते हैं, रहे यों ही वे पड़े विमुक्त,

काल के करों से छीन मुष्टि-गत प्राण कर।

और पंथ जोहती विनीत कहीं आसपास

हाथ जोड़ मृत्यु रही खड़ी शास्ति मान कर।

श्रृंग चढ जीवन के आर-पार हेरते-से
योगलीन लेटे थे पितामह गंभीर-से।
देखा धर्मराज ने, विभा प्रसन्न फैल रही
श्वेत शिरोरुह, शर-ग्रथित शरीर-से।
करते प्रणाम, छूते सिर से पवित्र पद,
उँगली को धोते हुए लोचनों के नीर से,
"हाय पितामह, महाभारत विफल हुआ"
चीख उठे धर्मराज व्याकुल, अधीर-से।

"वीर-गति पाकर सुयोधन चला गया है,

छोड़ मेरे सामने अशेष ध्वंस का प्रसार;

छोड़ मेरे हाथ में शरीर निज प्राणहीन,

व्योम में बजाता जय-दुन्दुभि-सा बार-बार;

और यह मृतक शरीर जो बचा है शेष,

चुप-चुप, मानो, पूछता है मुझसे पुकार-

विजय का एक उपहार मैं बचा हूँ, बोलो,

जीत किसकी है और किसकी हुई है हार?

"हाय, पितामह, हार किसकी हुई है यह?

ध्वन्स-अवशेष पर सिर धुनता है कौन?

कौन भस्नराशि में विफल सुख ढूँढता है?

लपटों से मुकुट क पट बुनता है कौन?

और बैठ मानव की रक्त-सरिता के तीर

नियति के व्यंग-भरे अर्थ गुनता है कौन?

कौन देखता है शवदाह बन्धु-बान्धवों का?

उत्तरा का करुण विलाप सुनता है कौन?

"जानता कहीं जो परिणाम महाभारत का,

तन-बल छोड़ मैं मनोबल से लड़ता;

तप से, सहिष्णुता से, त्याग से सुयोधन को

जीत, नयी नींव इतिहास कि मैं धरता।

और कहीं वज्र गलता न मेरी आह से जो,

मेरे तप से नहीं सुयोधन सुधरता;

तो भी हाय, यह रक्त-पात नहीं करता मैं,

भाइयों के संग कहीं भीख माँग मरता।

"किन्तु, हाय, जिस दिन बोया गया युद्ध-बीज,

साथ दिया मेर नहीं मेरे दिव्य ज्ञान ने;

उलत दी मति मेरी भीम की गदा ने और

पार्थ के शरासन ने, अपनी कृपान ने;

और जब अर्जुन को मोह हुआ रण-बीच,

बुझती शिखा में दिया घृत भगवान ने;

सबकी सुबुद्धि पितामह, हाय, मारी गयी,

सबको विनष्ट किया एक अभिमान ने।


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