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"अपन जान मैं बहुत करी / सूरदास" के अवतरणों में अंतर

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आछो गात अकारथ गार्‌यो।
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करी न प्रीति कमललोचन सों, जनम जनम ज्यों हार्‌यो॥
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निसदिन विषय बिलासिन बिलसत फूटि गईं तुअ चार्‌यो।
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अब लाग्यो पछितान पाय दुख दीन दई कौ मार्‌यो॥
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कामी कृपन कुचील कुदरसन, को न कृपा करि तार्‌यो।
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तातें कहत दयालु देव पुनि, काहै सूर बिसार्‌यो॥
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भावार्थ :- `जनम....हार्‌यो' = प्रत्येक जन्म में व्यर्थ ही सुन्दर शरीर नष्ट कर दिया।
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नर शरीर पाकर भी हरि का भजन करते न बना। जिस शरीर को `मोक्ष का द्वार' कहा है,
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दिया। लेकिन सूर को तो इस नियम में भी अपवाद प्रतीत होता है। न जाने, उस दयालु ने
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सूर को क्यों बिसरा दिया !
  
 
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चरन कमल बंदौ हरि राई।
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शब्दार्थ :- आछो = अच्छा, सुन्दर। गात =शरीर। अकारथ = व्यर्थ। गार्‌यो =बरबाद कर  
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै, आंधर कों सब कछु दरसाई॥
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दिया। ज्यो =जीव। तुअ =तेरी। चार्‌यो = चारों नेत्र, दो बाहर के नेत्र और दो
बहिरो सुनै, मूक पुनि बोलै, रंक चले सिर छत्र धराई।
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भीतर के ज्ञान नेत्र। दई =दुर्दैव, दुर्भाग्य। कृपन =लोभी, घृणित। कुचील =मैला,  
सूरदास स्वामी करुनामय, बार-बार बंदौं तेहि पाई॥
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गंदा। कुदरसन = कुरूप।
 
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भावार्थ :-- जिस पर श्रीहरि की कृपा हो जाती है, उसके लिए असंभव भी संभव हो जाता है। लूला-लंगड़ा मनुष्य पर्वत को भी लांघ जाता है। अंधे को गुप्त और प्रकट सबकुछ देखने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। बहरा सुनने लगता है। गूंगा बोलने लगता है कंगाल राज-छत्र धारण कर लेता हे। ऐसे करूणामय प्रभु की पद-वन्दना कौन अभागा न करेगा।
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शब्दार्थ :-राई= राजा। पंगु = लंगड़ा। लघै =लांघ जाता है, पार कर जाता है।
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मूक =गूंगा। रंक =निर्धन, गरीब, कंगाल। छत्र धराई = राज-छत्र धारण करके।
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तेहि = तिनके। पाई =चरण।
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18:53, 19 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण

राग सारंग


आछो गात अकारथ गार्‌यो।
करी न प्रीति कमललोचन सों, जनम जनम ज्यों हार्‌यो॥
निसदिन विषय बिलासिन बिलसत फूटि गईं तुअ चार्‌यो।
अब लाग्यो पछितान पाय दुख दीन दई कौ मार्‌यो॥
कामी कृपन कुचील कुदरसन, को न कृपा करि तार्‌यो।
तातें कहत दयालु देव पुनि, काहै सूर बिसार्‌यो॥

भावार्थ :- `जनम....हार्‌यो' = प्रत्येक जन्म में व्यर्थ ही सुन्दर शरीर नष्ट कर दिया। नर शरीर पाकर भी हरि का भजन करते न बना। जिस शरीर को `मोक्ष का द्वार' कहा है, उसे भी विषय-भोगों में नष्ट कर दिया। पर भक्त को प्रभु की कृपा का अब भी भरोसा है। हरि की कृपा ने बड़े-बड़े कामी, कृपण, मलिन और कुरूपों को भव-सागर से तार दिया। लेकिन सूर को तो इस नियम में भी अपवाद प्रतीत होता है। न जाने, उस दयालु ने सूर को क्यों बिसरा दिया !


शब्दार्थ :- आछो = अच्छा, सुन्दर। गात =शरीर। अकारथ = व्यर्थ। गार्‌यो =बरबाद कर दिया। ज्यो =जीव। तुअ =तेरी। चार्‌यो = चारों नेत्र, दो बाहर के नेत्र और दो भीतर के ज्ञान नेत्र। दई =दुर्दैव, दुर्भाग्य। कृपन =लोभी, घृणित। कुचील =मैला, गंदा। कुदरसन = कुरूप।