"ऊधो, होहु इहां तैं न्यारे / सूरदास" के अवतरणों में अंतर
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ऊधो, होहु इहां तैं न्यारे। | ऊधो, होहु इहां तैं न्यारे। | ||
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तुमहिं देखि तन अधिक तपत है, अरु नयननि के तारे॥ | तुमहिं देखि तन अधिक तपत है, अरु नयननि के तारे॥ | ||
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अपनो जोग सैंति किन राखत, इहां देत कत डारे। | अपनो जोग सैंति किन राखत, इहां देत कत डारे। | ||
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तुम्हरे हित अपने मुख करिहैं, मीठे तें नहिं खारे॥ | तुम्हरे हित अपने मुख करिहैं, मीठे तें नहिं खारे॥ | ||
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हम गिरिधर के नाम गुननि बस, और काहि उर धारे। | हम गिरिधर के नाम गुननि बस, और काहि उर धारे। | ||
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सूरदास, हम सबै एकमत तुम सब खोटे कारे॥ | सूरदास, हम सबै एकमत तुम सब खोटे कारे॥ | ||
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− | भावार्थ :- `तुमहि.....तारे,' तुम जले पर और जलाते हो, एक तो कृष्ण की विरहाग्नि से | + | `तुमहि.....तारे,' तुम जले पर और जलाते हो, एक तो कृष्ण की विरहाग्नि से |
हम योंही जली जाती है उस पर तुम योग की दाहक बातें सुना रहे हो। आंखें योंही जल | हम योंही जली जाती है उस पर तुम योग की दाहक बातें सुना रहे हो। आंखें योंही जल | ||
रही है। हमारे जिन नेत्रों में प्यारे कृष्ण बस रहे हैं, उनमें तुम निर्गुण निराकार | रही है। हमारे जिन नेत्रों में प्यारे कृष्ण बस रहे हैं, उनमें तुम निर्गुण निराकार | ||
ब्रह्म बसाने को कह रहे हो। | ब्रह्म बसाने को कह रहे हो। | ||
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`अपनो....डारें', तुम्हारा योग-शास्त्र तो एक बहुमूल्य वस्तु है, उसे हम जैसी गंवार | `अपनो....डारें', तुम्हारा योग-शास्त्र तो एक बहुमूल्य वस्तु है, उसे हम जैसी गंवार | ||
गोपियों के आगे क्यों व्यर्थ बरबाद कर रहे हो। | गोपियों के आगे क्यों व्यर्थ बरबाद कर रहे हो। | ||
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`तुम्हारे....खारे,' तुम्हारे लिए हम अपने मीठे को खारा नहीं कर सकतीं, प्यारे मोहन | `तुम्हारे....खारे,' तुम्हारे लिए हम अपने मीठे को खारा नहीं कर सकतीं, प्यारे मोहन | ||
की मीठी याद को छोड़कर तुम्हारे नीरस निर्गुण ज्ञान का आस्वादन भला हम क्यों करने | की मीठी याद को छोड़कर तुम्हारे नीरस निर्गुण ज्ञान का आस्वादन भला हम क्यों करने | ||
चलीं ? | चलीं ? | ||
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शब्दार्थ :- न्यारे होहु = चले जाओ। सैंति = भली-भांति संचित करके।खोटे = बुरे। | शब्दार्थ :- न्यारे होहु = चले जाओ। सैंति = भली-भांति संचित करके।खोटे = बुरे। |
19:14, 19 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण
राग टोडी
ऊधो, होहु इहां तैं न्यारे।
तुमहिं देखि तन अधिक तपत है, अरु नयननि के तारे॥
अपनो जोग सैंति किन राखत, इहां देत कत डारे।
तुम्हरे हित अपने मुख करिहैं, मीठे तें नहिं खारे॥
हम गिरिधर के नाम गुननि बस, और काहि उर धारे।
सूरदास, हम सबै एकमत तुम सब खोटे कारे॥
भावार्थ :- `तुमहि.....तारे,' तुम जले पर और जलाते हो, एक तो कृष्ण की विरहाग्नि से हम योंही जली जाती है उस पर तुम योग की दाहक बातें सुना रहे हो। आंखें योंही जल रही है। हमारे जिन नेत्रों में प्यारे कृष्ण बस रहे हैं, उनमें तुम निर्गुण निराकार ब्रह्म बसाने को कह रहे हो।
`अपनो....डारें', तुम्हारा योग-शास्त्र तो एक बहुमूल्य वस्तु है, उसे हम जैसी गंवार गोपियों के आगे क्यों व्यर्थ बरबाद कर रहे हो।
`तुम्हारे....खारे,' तुम्हारे लिए हम अपने मीठे को खारा नहीं कर सकतीं, प्यारे मोहन की मीठी याद को छोड़कर तुम्हारे नीरस निर्गुण ज्ञान का आस्वादन भला हम क्यों करने चलीं ?
शब्दार्थ :- न्यारे होहु = चले जाओ। सैंति = भली-भांति संचित करके।खोटे = बुरे।