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18:46, 22 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण
पढ़ना चाहता तुम्हें
कहा मैंने
उतने ही पास
उतनी ही दूर से
जितने पर
पढ़े जाने वक़्त
होती है
क़िताब
ठीक है...
सौंप दिया उसने
ख़ुद के मेरे हाथों में
पढ़ते-पढ़ते
खो गया समझने में
सोचते-सोचते
जाने कब
भरम गई आँखें
सो गया
खुली किताब
सीने पर
उलट कर...।