"मन तोसों कोटिक बार कहीं / सूरदास" के अवतरणों में अंतर
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समुझि न चरन गहे गोविन्द के, उर अघ-सूल सही॥ | समुझि न चरन गहे गोविन्द के, उर अघ-सूल सही॥ | ||
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सुमिरन ध्यान कथा हरिजू की, यह एकौ न रही। | सुमिरन ध्यान कथा हरिजू की, यह एकौ न रही। | ||
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लोभी लंपट विषयनि सों हित, यौं तेरी निबही॥ | लोभी लंपट विषयनि सों हित, यौं तेरी निबही॥ | ||
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छांड़ि कनक मनि रत्न अमोलक, कांच की किरच गही। | छांड़ि कनक मनि रत्न अमोलक, कांच की किरच गही। | ||
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ऐसो तू है चतुर बिबेकी, पय तजि पियत महीं॥ | ऐसो तू है चतुर बिबेकी, पय तजि पियत महीं॥ | ||
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ब्रह्मादिक रुद्रादिक रबिससि देखे सुर सबहीं। | ब्रह्मादिक रुद्रादिक रबिससि देखे सुर सबहीं। | ||
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सूरदास, भगवन्त-भजन बिनु, सुख तिहुं लोक नहीं॥ | सूरदास, भगवन्त-भजन बिनु, सुख तिहुं लोक नहीं॥ | ||
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16:50, 23 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण
राग बिलावल
मन तोसों कोटिक बार कहीं।
समुझि न चरन गहे गोविन्द के, उर अघ-सूल सही॥
सुमिरन ध्यान कथा हरिजू की, यह एकौ न रही।
लोभी लंपट विषयनि सों हित, यौं तेरी निबही॥
छांड़ि कनक मनि रत्न अमोलक, कांच की किरच गही।
ऐसो तू है चतुर बिबेकी, पय तजि पियत महीं॥
ब्रह्मादिक रुद्रादिक रबिससि देखे सुर सबहीं।
सूरदास, भगवन्त-भजन बिनु, सुख तिहुं लोक नहीं॥
भावार्थ :- बहुत समझाने पर भी यह मन वास्तविक तत्व को समझा ही नहीं। विषय-सुखों
से ही मित्रता जोड़ी। उन जैसों के साथ ही इसकी बनी। भगवद्-भजन न किया, न किया।
कांचन और रत्न को छोड़कर अभागे ने कांच के टुकड़े पसन्द किये। दूध फेंककर मट्ठा
पिया !सारांश यह कि विषयों में स्थायी आनन्द नहीं। वह तो विवेकपूर्वक किये हुए हरि
भजन में ही है।
शब्दार्थ :- अघसूल सही = पाप-कर्म जनित यातना सहता रहा। यह एकौ न रही = एक भी बात पसन्द न आई। हित = प्रेम। किरच = टुकड़ा। मही =छाछ।