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"मन धन-धाम धरे / सूरदास" के अवतरणों में अंतर

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राग धनाश्री  
 
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मन धन-धाम धरे
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मोसौं पतित न और हरे।
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जानत हौ प्रभु अंतरजामी, जे मैं कर्म करे॥
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ऐसौं अंध, अधम, अबिबेकी, खोटनि करत खरे।
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बिषई भजे, बिरक्त  न सेए, मन धन-धाम धरे॥
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ज्यौं माखी मृगमद-मंडित-तन परिहरि, पूय परे।
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त्यौं मन मूढ़ बिषय-गुंजा गहि, चिंतामनि बिसरै॥
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ऐसे और पतित अवलंबित, ते छिन लाज तरे।
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सूर पतित तुम पतित-उधारन, बिरद कि लाज धरे॥
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मन धन-धाम धरे<br>
 
मोसौं पतित न और हरे।<br>
 
जानत हौ प्रभु अंतरजामी, जे मैं कर्म करे॥<br>
 
ऐसौं अंध, अधम, अबिबेकी, खोटनि करत खरे।<br>
 
बिषई भजे, बिरक्त  न सेए, मन धन-धाम धरे॥<br>
 
ज्यौं माखी मृगमद-मंडित-तन परिहरि, पूय परे।<br>
 
त्यौं मन मूढ़ बिषय-गुंजा गहि, चिंतामनि बिसरै॥<br>
 
ऐसे और पतित अवलंबित, ते छिन लाज तरे।<br>
 
सूर पतित तुम पतित-उधारन, बिरद कि लाज धरे॥<br><br>
 
  
 
यह पद दुर्लभ भक्तिभाव को दर्शाता है। महात्मा सूरदास भगवान् को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिये अपने को महानतम पतित बताने से भी संकोच नहीं करते हैं। वह कहते हैं - श्रीहरि! मेरे समान पतित और कोई नहीं है। हे प्रभु! आप अन्तर्यामी हैं; मैंने जो कर्म किये हैं, उन्हें आप जानते ही हैं। मैं ऐसा अंधा (अज्ञानी), अधम, विचारहीन हूँ कि असत्य (भोगों) को भी सत्य कहता (मानता) हूँ। मैंने विषयी पुरुषों की सेवा की; किंतु विरक्त  संतों की सेवा नहीं की। धन और भवन में मन लगाये रहा। जैसे मक्खी कस्तूरी से उपलिप्त शरीर को छोड़कर दुर्गधयुक्त पीब आदि पर बैठती है, वैसे ही मेरा मूर्ख मन विषय-भोगरूपी गुंजा को लेकर (भगवन्नामरूपी) चिन्तामणि को भूल गया। ऐसे दूसरे भी पतित हुए हैं, जो आप पर अवलम्बित होने से (आपकी शरण लेने से) एक क्षण में तर गये (मुक्त  हो गये)। सूरदास कहते हैं कि आप पतितों का उद्धार करनेवाले हैं, इस अपने सुयश की लज्जा कीजिये, अपने सुयश की रक्षा के लिये मेरा उद्धार कीजिये!
 
यह पद दुर्लभ भक्तिभाव को दर्शाता है। महात्मा सूरदास भगवान् को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिये अपने को महानतम पतित बताने से भी संकोच नहीं करते हैं। वह कहते हैं - श्रीहरि! मेरे समान पतित और कोई नहीं है। हे प्रभु! आप अन्तर्यामी हैं; मैंने जो कर्म किये हैं, उन्हें आप जानते ही हैं। मैं ऐसा अंधा (अज्ञानी), अधम, विचारहीन हूँ कि असत्य (भोगों) को भी सत्य कहता (मानता) हूँ। मैंने विषयी पुरुषों की सेवा की; किंतु विरक्त  संतों की सेवा नहीं की। धन और भवन में मन लगाये रहा। जैसे मक्खी कस्तूरी से उपलिप्त शरीर को छोड़कर दुर्गधयुक्त पीब आदि पर बैठती है, वैसे ही मेरा मूर्ख मन विषय-भोगरूपी गुंजा को लेकर (भगवन्नामरूपी) चिन्तामणि को भूल गया। ऐसे दूसरे भी पतित हुए हैं, जो आप पर अवलम्बित होने से (आपकी शरण लेने से) एक क्षण में तर गये (मुक्त  हो गये)। सूरदास कहते हैं कि आप पतितों का उद्धार करनेवाले हैं, इस अपने सुयश की लज्जा कीजिये, अपने सुयश की रक्षा के लिये मेरा उद्धार कीजिये!

16:51, 23 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण

राग धनाश्री

मन धन-धाम धरे
मोसौं पतित न और हरे।
जानत हौ प्रभु अंतरजामी, जे मैं कर्म करे॥
ऐसौं अंध, अधम, अबिबेकी, खोटनि करत खरे।
बिषई भजे, बिरक्त न सेए, मन धन-धाम धरे॥
ज्यौं माखी मृगमद-मंडित-तन परिहरि, पूय परे।
त्यौं मन मूढ़ बिषय-गुंजा गहि, चिंतामनि बिसरै॥
ऐसे और पतित अवलंबित, ते छिन लाज तरे।
सूर पतित तुम पतित-उधारन, बिरद कि लाज धरे॥


यह पद दुर्लभ भक्तिभाव को दर्शाता है। महात्मा सूरदास भगवान् को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिये अपने को महानतम पतित बताने से भी संकोच नहीं करते हैं। वह कहते हैं - श्रीहरि! मेरे समान पतित और कोई नहीं है। हे प्रभु! आप अन्तर्यामी हैं; मैंने जो कर्म किये हैं, उन्हें आप जानते ही हैं। मैं ऐसा अंधा (अज्ञानी), अधम, विचारहीन हूँ कि असत्य (भोगों) को भी सत्य कहता (मानता) हूँ। मैंने विषयी पुरुषों की सेवा की; किंतु विरक्त संतों की सेवा नहीं की। धन और भवन में मन लगाये रहा। जैसे मक्खी कस्तूरी से उपलिप्त शरीर को छोड़कर दुर्गधयुक्त पीब आदि पर बैठती है, वैसे ही मेरा मूर्ख मन विषय-भोगरूपी गुंजा को लेकर (भगवन्नामरूपी) चिन्तामणि को भूल गया। ऐसे दूसरे भी पतित हुए हैं, जो आप पर अवलम्बित होने से (आपकी शरण लेने से) एक क्षण में तर गये (मुक्त हो गये)। सूरदास कहते हैं कि आप पतितों का उद्धार करनेवाले हैं, इस अपने सुयश की लज्जा कीजिये, अपने सुयश की रक्षा के लिये मेरा उद्धार कीजिये!