भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"यह दंतुरित मुसकान / नागार्जुन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKGlobal}}
 
+
{{KKRachna
रचनाकार: [[नागार्जुन]]
+
|रचनाकार=नागार्जुन
 
+
}}
[[Category:कविताएँ]]
+
{{KKCatKavita‎}}
 
+
<Poem>
[[Category:नागार्जुन]]
+
तुम्हारी यह दंतुरित मुस्कान
 
+
 
+
~*~*~*~*~*~*~*~~*~*~*~*~*~*~*~
+
 
+
 
+
तुम्‍हारी यह दंतुरित मुसकान
+
 
+
 
मृतक में भी डाल देगी जान
 
मृतक में भी डाल देगी जान
 
+
धूली-धूसर तुम्हारे ये गात...
धूली-धूसर तुम्‍हारे ये गात...
+
 
+
 
छोड़कर तालाब मेरी झोंपड़ी में खिल रहे जलजात
 
छोड़कर तालाब मेरी झोंपड़ी में खिल रहे जलजात
 
+
परस पाकर तुम्हारी ही प्राण,
परस पाकर तुम्‍हारी ही प्राण,
+
 
+
 
पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण
 
पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण
 
 
छू गया तुमसे कि झरने लग पड़े शेफालिका के फूल
 
छू गया तुमसे कि झरने लग पड़े शेफालिका के फूल
 
 
बाँस था कि बबूल?
 
बाँस था कि बबूल?
 
 
तुम मुझे पाए नहीं पहचान?
 
तुम मुझे पाए नहीं पहचान?
 
 
देखते ही रहोगे अनिमेष!
 
देखते ही रहोगे अनिमेष!
 
 
थक गए हो?
 
थक गए हो?
 
 
आँख लूँ मैं फेर?
 
आँख लूँ मैं फेर?
 
+
क्या हुआ यदि हो सके परिचित न पहली बार?
क्‍या हुया यदि हो सके परिचित न पहली बार?
+
यदि तुम्हारी माँ न माध्यम बनी होगी आज
 
+
यदि तुम्‍हारी माँ न माध्‍यम बनी होगी आज
+
 
+
 
मैं न सकता देख
 
मैं न सकता देख
 
 
मैं न पाता जान
 
मैं न पाता जान
 +
तुम्हारी यह दंतुरित मुस्कान
  
तुम्‍हारी यह दंतुरित मुसकान
 
 
धन्‍य तुम, माँ भी तुम्‍हारी धन्‍य!
 
 
चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्‍य!
 
 
इस अतिथि से प्रिय क्‍या रहा तुम्‍हारा संपर्क
 
  
 +
धन्य तुम, माँ भी तुम्‍हारी धन्य!
 +
चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्य!
 +
इस अतिथि से प्रिय क्या रहा तम्हारा संपर्क
 
उँगलियाँ माँ की कराती रही मधुपर्क
 
उँगलियाँ माँ की कराती रही मधुपर्क
 
 
देखते तुम इधर कनखी मार
 
देखते तुम इधर कनखी मार
 
 
और होतीं जब कि आँखे चार
 
और होतीं जब कि आँखे चार
 
+
तब तुम्हारी दंतुरित मुस्कान
तब तुम्‍हारी दंतुरित मुसकान
+
 
+
 
लगती बड़ी ही छविमान!
 
लगती बड़ी ही छविमान!
 +
</poem>

12:38, 25 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण

तुम्हारी यह दंतुरित मुस्कान
मृतक में भी डाल देगी जान
धूली-धूसर तुम्हारे ये गात...
छोड़कर तालाब मेरी झोंपड़ी में खिल रहे जलजात
परस पाकर तुम्हारी ही प्राण,
पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण
छू गया तुमसे कि झरने लग पड़े शेफालिका के फूल
बाँस था कि बबूल?
तुम मुझे पाए नहीं पहचान?
देखते ही रहोगे अनिमेष!
थक गए हो?
आँख लूँ मैं फेर?
क्या हुआ यदि हो सके परिचित न पहली बार?
यदि तुम्हारी माँ न माध्यम बनी होगी आज
मैं न सकता देख
मैं न पाता जान
तुम्हारी यह दंतुरित मुस्कान


धन्य तुम, माँ भी तुम्‍हारी धन्य!
चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्य!
इस अतिथि से प्रिय क्या रहा तम्हारा संपर्क
उँगलियाँ माँ की कराती रही मधुपर्क
देखते तुम इधर कनखी मार
और होतीं जब कि आँखे चार
तब तुम्हारी दंतुरित मुस्कान
लगती बड़ी ही छविमान!