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"एसी मूढता या मन की / तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर

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धूम समूह निरखि-चातक ज्यौं, तृषित जानि मति धन की।
 
धूम समूह निरखि-चातक ज्यौं, तृषित जानि मति धन की।
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टूटत अति आतुर अहार बस, छति बिसारि आनन की।
 
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कहं लौ कहौ कुचाल कृपानिधि, जानत हों गति मन की।
 
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तुलसिदास प्रभु हरहु दुसह दुख, करहु लाज निज पन की।</poem>
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तुलसिदास प्रभु हरहु दुसह दुख, करहु लाज निज पन की।
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06:17, 26 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण

एसी मूढता या मन की।
परिहरि रामभगति-सुरसरिता, आस करत ओसकन की।
धूम समूह निरखि-चातक ज्यौं, तृषित जानि मति धन की।
नहिं तहं सीतलता न बारि, पुनि हानि होति लोचन की।
ज्यौं गज काँच बिलोकि सेन जड़ छांह आपने तन की।
टूटत अति आतुर अहार बस, छति बिसारि आनन की।
कहं लौ कहौ कुचाल कृपानिधि, जानत हों गति मन की।
तुलसिदास प्रभु हरहु दुसह दुख, करहु लाज निज पन की।