भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"ये धूप किनारा शाम ढले / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ }} ये धूप किनारा शाम ढले, <br> मिलते हैं द...) |
Pratishtha (चर्चा | योगदान) छो (ये धूप किनारा शाम ढले / फ़ैज़ का नाम बदलकर ये धूप किनारा शाम ढले / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ कर दिया गया है) |
(कोई अंतर नहीं)
|
19:39, 26 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण
ये धूप किनारा शाम ढले,
मिलते हैं दोनो वक़्त जहाँ,
जो रात ना दिन, जो आज ना कल,
पल भर को अमर, पल भर में धुआं
इस धूप किनारे पल दो पल
होठों कि लपक बाहों कि खनक
ये मेल हमारा झूठ ना सच क्यों रार करें,
क्यों दोष धरें किस कारण झूठी बात करें
जब तेरी समंदर आंखों में
इस शाम का सूरज डूबेगा
सुख सोयेंगे घर दर वाले
और राही अपनी राह लेगा