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पतझर-1 / अचल वाजपेयी
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18:28, 31 अक्टूबर 2009
{{KKRachna
|रचनाकार=अचल वाजपेयी
|संग्रह=शत्रु-शिविर तथा अन्य कविताएँ
/ अचल वाजपेयी
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
पतझर की तरह टूटना
अंधेरे का घिरना
सन्नाटे के चाबुक
पीठ पर पड़ना
बेहद ज़रूरी है
इससे पीठ होने का अहसास
गहरा होता है
देह में अचानक
आग के सोते फूटते हैं
खुलासा होता है
कंधों से जुड़े दो हाथ
आख़िर क्यों हैं
</poem>
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