"अपना काम / अजित कुमार" के अवतरणों में अंतर
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चीख़-चीख़ कर उन्होंने | चीख़-चीख़ कर उन्होंने | ||
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दुनिया-भर की नींद हराम नहीं कर दी | दुनिया-भर की नींद हराम नहीं कर दी | ||
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नाक चढा, भौं उठा | नाक चढा, भौं उठा | ||
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सबको नीचे नहीं गिराया | सबको नीचे नहीं गिराया | ||
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पूरी सुबह के दौरान | पूरी सुबह के दौरान | ||
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एक बार भी मुँह नहीं फुलाया | एक बार भी मुँह नहीं फुलाया | ||
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कोप-भवन में जाने की ज़रूरत नहीं समझी... | कोप-भवन में जाने की ज़रूरत नहीं समझी... | ||
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सचमुच सुखद था यह देखना कि | सचमुच सुखद था यह देखना कि | ||
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औरतें कितनी मगन हो | औरतें कितनी मगन हो | ||
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अपने–अपने काम में लगी हैं... | अपने–अपने काम में लगी हैं... | ||
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गिनती भूल चुके बूढ़े को | गिनती भूल चुके बूढ़े को | ||
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वह चार के बाद पाँच का गुटका | वह चार के बाद पाँच का गुटका | ||
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रखना सिखा रही है | रखना सिखा रही है | ||
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जबकि वह तीन आठ दो... कुछ भी | जबकि वह तीन आठ दो... कुछ भी | ||
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लगाकर मगन है... | लगाकर मगन है... | ||
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दूसरी है व्यस्त लकवामारे की कमर | दूसरी है व्यस्त लकवामारे की कमर | ||
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सीधी करने की कोशिश में; | सीधी करने की कोशिश में; | ||
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साथ-साथ समझा भी रही है - | साथ-साथ समझा भी रही है - | ||
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पाँव उठेंगे तभी तो चलकर जौनपुर | पाँव उठेंगे तभी तो चलकर जौनपुर | ||
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पहुँच सकोगे। | पहुँच सकोगे। | ||
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ज़रा बताओ तो सही- घर के लिए | ज़रा बताओ तो सही- घर के लिए | ||
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गाड़ी कहाँ से पकड़ोगे? | गाड़ी कहाँ से पकड़ोगे? | ||
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और नाम सुनके ‘घर’ का | और नाम सुनके ‘घर’ का | ||
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वह तनिक सिहर-सा उठा है | वह तनिक सिहर-सा उठा है | ||
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भले ही उसके पैरों में कोई जुंबिश नज़र नहीं आई अभी तक। | भले ही उसके पैरों में कोई जुंबिश नज़र नहीं आई अभी तक। | ||
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तीसरी ने थमाया है | तीसरी ने थमाया है | ||
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मरीज़ की हथेली में | मरीज़ की हथेली में | ||
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स्प्रिंग का शिकंजा- | स्प्रिंग का शिकंजा- | ||
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ज़रूर ही चीजों पर उसकी पकड़ | ज़रूर ही चीजों पर उसकी पकड़ | ||
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मज़बूत करने को : | मज़बूत करने को : | ||
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"कसो, ढीला छोडो, धीरे-धीरे! बार–बार"... | "कसो, ढीला छोडो, धीरे-धीरे! बार–बार"... | ||
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सबक सीधा और साफ़ था । | सबक सीधा और साफ़ था । | ||
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ऐसा करते उसे देख | ऐसा करते उसे देख | ||
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जब मैंने भी चाहा-- | जब मैंने भी चाहा-- | ||
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टोकरी में धरी कनियों को | टोकरी में धरी कनियों को | ||
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अपनी मुट्ठी में भरूँ... | अपनी मुट्ठी में भरूँ... | ||
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वे फिसलती चली गईं | वे फिसलती चली गईं | ||
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जैसे कि उंगलियों में से रेत। | जैसे कि उंगलियों में से रेत। | ||
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मुझे हताश देख वह बोली- | मुझे हताश देख वह बोली- | ||
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"रिलैक्स! रखो धीरज... | "रिलैक्स! रखो धीरज... | ||
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वक़्त के साथ ही ठीक होगा, | वक़्त के साथ ही ठीक होगा, | ||
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जो भी होगा- | जो भी होगा- | ||
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जैसे कि उसी के साथ इतना कुछ | जैसे कि उसी के साथ इतना कुछ | ||
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बिगड़ता चला जाता है..." | बिगड़ता चला जाता है..." | ||
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उसकी पलकों में सिमटे पूरे जीवन को | उसकी पलकों में सिमटे पूरे जीवन को | ||
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तो मैं नहीं बाँच पाया- | तो मैं नहीं बाँच पाया- | ||
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पर सरल हुआ देख सकना- | पर सरल हुआ देख सकना- | ||
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वह और उसकी टोली- | वह और उसकी टोली- | ||
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कितने मनोयोग से उन्हें नवजीवन देने में | कितने मनोयोग से उन्हें नवजीवन देने में | ||
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लगी है | लगी है | ||
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जिनमें में किसी को भी उन्होंने | जिनमें में किसी को भी उन्होंने | ||
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अपनी कोख से नहीं जन्मा। | अपनी कोख से नहीं जन्मा। | ||
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'कुछ दवा, कुछ दुआ'-यह तो | 'कुछ दवा, कुछ दुआ'-यह तो | ||
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सबने पहले भी सुना था- | सबने पहले भी सुना था- | ||
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शरीरोपचार के मरीज़ों ने | शरीरोपचार के मरीज़ों ने | ||
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उपचार के साथ | उपचार के साथ | ||
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दुलार और पुचकार का भी मतलब | दुलार और पुचकार का भी मतलब | ||
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अब जाना... | अब जाना... | ||
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बहुत दिनों बाद... | बहुत दिनों बाद... | ||
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बल्कि उस क्षण तो यह लगा कि- | बल्कि उस क्षण तो यह लगा कि- | ||
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जीवन में पहली बार- | जीवन में पहली बार- | ||
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एक साथ, एक जगह | एक साथ, एक जगह | ||
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इतना अधिक सौंदर्य | इतना अधिक सौंदर्य | ||
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मेरी नज़र में आ समाया… | मेरी नज़र में आ समाया… | ||
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जो मुमकिन है आगे कभी बार-बार | जो मुमकिन है आगे कभी बार-बार | ||
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मन में भी कौंधे । | मन में भी कौंधे । | ||
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11:34, 1 नवम्बर 2009 का अवतरण
चीख़-चीख़ कर उन्होंने
दुनिया-भर की नींद हराम नहीं कर दी
नाक चढा, भौं उठा
सबको नीचे नहीं गिराया
पूरी सुबह के दौरान
एक बार भी मुँह नहीं फुलाया
कोप-भवन में जाने की ज़रूरत नहीं समझी...
सचमुच सुखद था यह देखना कि
औरतें कितनी मगन हो
अपने–अपने काम में लगी हैं...
गिनती भूल चुके बूढ़े को
वह चार के बाद पाँच का गुटका
रखना सिखा रही है
जबकि वह तीन आठ दो... कुछ भी
लगाकर मगन है...
दूसरी है व्यस्त लकवामारे की कमर
सीधी करने की कोशिश में;
साथ-साथ समझा भी रही है -
पाँव उठेंगे तभी तो चलकर जौनपुर
पहुँच सकोगे।
ज़रा बताओ तो सही- घर के लिए
गाड़ी कहाँ से पकड़ोगे?
और नाम सुनके ‘घर’ का
वह तनिक सिहर-सा उठा है
भले ही उसके पैरों में कोई जुंबिश नज़र नहीं आई अभी तक।
तीसरी ने थमाया है
मरीज़ की हथेली में
स्प्रिंग का शिकंजा-
ज़रूर ही चीजों पर उसकी पकड़
मज़बूत करने को :
"कसो, ढीला छोडो, धीरे-धीरे! बार–बार"...
सबक सीधा और साफ़ था ।
ऐसा करते उसे देख
जब मैंने भी चाहा--
टोकरी में धरी कनियों को
अपनी मुट्ठी में भरूँ...
वे फिसलती चली गईं
जैसे कि उंगलियों में से रेत।
मुझे हताश देख वह बोली-
"रिलैक्स! रखो धीरज...
वक़्त के साथ ही ठीक होगा,
जो भी होगा-
जैसे कि उसी के साथ इतना कुछ
बिगड़ता चला जाता है..."
उसकी पलकों में सिमटे पूरे जीवन को
तो मैं नहीं बाँच पाया-
पर सरल हुआ देख सकना-
वह और उसकी टोली-
कितने मनोयोग से उन्हें नवजीवन देने में
लगी है
जिनमें में किसी को भी उन्होंने
अपनी कोख से नहीं जन्मा।
'कुछ दवा, कुछ दुआ'-यह तो
सबने पहले भी सुना था-
शरीरोपचार के मरीज़ों ने
उपचार के साथ
दुलार और पुचकार का भी मतलब
अब जाना...
बहुत दिनों बाद...
बल्कि उस क्षण तो यह लगा कि-
जीवन में पहली बार-
एक साथ, एक जगह
इतना अधिक सौंदर्य
मेरी नज़र में आ समाया…
जो मुमकिन है आगे कभी बार-बार
मन में भी कौंधे ।