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"झुनझुने से अनहद नाद तक / अजित कुमार" के अवतरणों में अंतर

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जब पूरे देश भर में  
 
जब पूरे देश भर में  
 
 
"पावर आन, इंडिया आन" का झुनझुना बज रहा था,  
 
"पावर आन, इंडिया आन" का झुनझुना बज रहा था,  
 
 
प्रगति मैदान में  
 
प्रगति मैदान में  
 
 
"नैनो रन्स, इंडिया रन्स" का शानदार नारा भी बुलन्द हुआ...  
 
"नैनो रन्स, इंडिया रन्स" का शानदार नारा भी बुलन्द हुआ...  
 
 
इस लखटकिया ब्यूटी की एक झलक पाने को  
 
इस लखटकिया ब्यूटी की एक झलक पाने को  
 
 
उमड़े हुजूम ने तमाम सड़कें जाम कर दीं।  
 
उमड़े हुजूम ने तमाम सड़कें जाम कर दीं।  
 
  
 
एक सपना अलस्सुबह मेरी आँखों में कौंधा...  
 
एक सपना अलस्सुबह मेरी आँखों में कौंधा...  
 
 
महानगर से जान बचा अपने घर वापस आया हूँ–
 
महानगर से जान बचा अपने घर वापस आया हूँ–
 
 
माता-पिता-परिवार के बीच दो-चार दिन चैन से बिताने–
 
माता-पिता-परिवार के बीच दो-चार दिन चैन से बिताने–
 
 
जो पलक झपकते गुज़रे...  
 
जो पलक झपकते गुज़रे...  
 
  
 
वह शाम भी आ गई
 
वह शाम भी आ गई
 
 
जब प्रतीक्षा लंबी हो चली–
 
जब प्रतीक्षा लंबी हो चली–
 
 
पिताजी अपनी सैर से लौटें  
 
पिताजी अपनी सैर से लौटें  
 
 
ताकि रात की ट्रेन पकड़  
 
ताकि रात की ट्रेन पकड़  
 
 
अपने को फिर से भट्ठी में झोंकने के लिए  
 
अपने को फिर से भट्ठी में झोंकने के लिए  
 
 
मैं उनसे विदा मांगूँ...  
 
मैं उनसे विदा मांगूँ...  
 
  
 
कौन जाने उस बिलंब से उपजी आशंका ही   
 
कौन जाने उस बिलंब से उपजी आशंका ही   
 
 
दु:स्वप्न बनकर उभर आई--
 
दु:स्वप्न बनकर उभर आई--
 
 
क्या देखता हूँ-
 
क्या देखता हूँ-
 
 
कोई अजनबी उनका शव ठेले में लादे घर के आगे खड़ा है...   
 
कोई अजनबी उनका शव ठेले में लादे घर के आगे खड़ा है...   
 
  
 
उधर तो रोवा-रोहट मच गई
 
उधर तो रोवा-रोहट मच गई
 
 
इधर उचट गई नींद के भीतर
 
इधर उचट गई नींद के भीतर
 
 
एक और दु:स्वप्न झकझोरने लगा मुझ को–  
 
एक और दु:स्वप्न झकझोरने लगा मुझ को–  
 
  
 
वहाँ तो वतन में दो-चार जने कन्धा देने के लिए जुट ही जाते ज़रूर-
 
वहाँ तो वतन में दो-चार जने कन्धा देने के लिए जुट ही जाते ज़रूर-
 
 
यहाँ परदेस की अफ़रातफ़री में भला किसे फुरसत होगी-
 
यहाँ परदेस की अफ़रातफ़री में भला किसे फुरसत होगी-
 
 
मुझ-जैसे बूढे़ खूसट की फूँक-ताप के लिए अपना पूरा दिन गँवाये?
 
मुझ-जैसे बूढे़ खूसट की फूँक-ताप के लिए अपना पूरा दिन गँवाये?
 
 
मरघट तक पहुँचाने वाली तमाम सड़कें भी तो जाम होंगी।  
 
मरघट तक पहुँचाने वाली तमाम सड़कें भी तो जाम होंगी।  
 
  
 
तब से एक दूसरा ही झुनझुना मेरे कान में बज रहा है-     
 
तब से एक दूसरा ही झुनझुना मेरे कान में बज रहा है-     
 
 
भट्ठी जाम।
 
भट्ठी जाम।
 
 
राहें जाम।
 
राहें जाम।
 
 
चक्का जाम।
 
चक्का जाम।
 
 
मेन आफ़।
 
मेन आफ़।
 
 
सब आफ़...  
 
सब आफ़...  
 
  
 
नहीं जानता, अनहद नाद यह कैसे थमेगा?
 
नहीं जानता, अनहद नाद यह कैसे थमेगा?
 
 
'नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि' और  
 
'नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि' और  
 
 
'फ़ानी है दुनिया' के छोरों से टकरा  
 
'फ़ानी है दुनिया' के छोरों से टकरा  
 
 
सुनामी की लहर बनता।  
 
सुनामी की लहर बनता।  
 
  
 
कोई बताए तो–
 
कोई बताए तो–
 
 
सपनों को ‘नाइटमेयर’ बन जाने से क्योंकर हम बचाएँ?
 
सपनों को ‘नाइटमेयर’ बन जाने से क्योंकर हम बचाएँ?
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11:40, 1 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

जब पूरे देश भर में
"पावर आन, इंडिया आन" का झुनझुना बज रहा था,
प्रगति मैदान में
"नैनो रन्स, इंडिया रन्स" का शानदार नारा भी बुलन्द हुआ...
इस लखटकिया ब्यूटी की एक झलक पाने को
उमड़े हुजूम ने तमाम सड़कें जाम कर दीं।

एक सपना अलस्सुबह मेरी आँखों में कौंधा...
महानगर से जान बचा अपने घर वापस आया हूँ–
माता-पिता-परिवार के बीच दो-चार दिन चैन से बिताने–
जो पलक झपकते गुज़रे...

वह शाम भी आ गई
जब प्रतीक्षा लंबी हो चली–
पिताजी अपनी सैर से लौटें
ताकि रात की ट्रेन पकड़
अपने को फिर से भट्ठी में झोंकने के लिए
मैं उनसे विदा मांगूँ...

कौन जाने उस बिलंब से उपजी आशंका ही
दु:स्वप्न बनकर उभर आई--
क्या देखता हूँ-
कोई अजनबी उनका शव ठेले में लादे घर के आगे खड़ा है...

उधर तो रोवा-रोहट मच गई
इधर उचट गई नींद के भीतर
एक और दु:स्वप्न झकझोरने लगा मुझ को–

वहाँ तो वतन में दो-चार जने कन्धा देने के लिए जुट ही जाते ज़रूर-
यहाँ परदेस की अफ़रातफ़री में भला किसे फुरसत होगी-
मुझ-जैसे बूढे़ खूसट की फूँक-ताप के लिए अपना पूरा दिन गँवाये?
मरघट तक पहुँचाने वाली तमाम सड़कें भी तो जाम होंगी।

तब से एक दूसरा ही झुनझुना मेरे कान में बज रहा है-
भट्ठी जाम।
राहें जाम।
चक्का जाम।
मेन आफ़।
सब आफ़...

नहीं जानता, अनहद नाद यह कैसे थमेगा?
'नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि' और
'फ़ानी है दुनिया' के छोरों से टकरा
सुनामी की लहर बनता।

कोई बताए तो–
सपनों को ‘नाइटमेयर’ बन जाने से क्योंकर हम बचाएँ?