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"एक विज्ञापन / अजित कुमार" के अवतरणों में अंतर

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एक विज्ञापन   
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सोचता हूँ-
 
सोचता हूँ-
 
गीत लिखने से कहीं अच्छा,
 
गीत लिखने से कहीं अच्छा,
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करेंगे मुझ पर बड़ा उपकार ।
 
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अपने देश का हाल 
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प्यार की बातें मना जिस देश में,
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प्यार के गाने वहाँ सबसे अधिक ।
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जहाँ पर बन्धन समाजिक बहुत हैं,
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वहाँ के गायक-सुकवि खासे रसिक ।
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इश्किया अन्दाज में लिखते सभी,
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जहाँ होने चाहिए थे कवि-श्रमिक ।
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कलाकारों का संयुक्त वक्तव्य
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नहीं कभी जागे ऊषा की स्वर्णिम वेला में
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  -नींद हमारी खुली हमेशा आठ बजे ।
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नहीं कभी घूमे उपवन में, नदियों के तट पर
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  -शामें बीतीं बहसें करते या लिखते-पढते ।
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तितली के रंगों को हमने देखा नहीं कभी,
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कोयल में, बुलबुल में कोई फ़र्क न कर पाये ।
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चातक और पपीहे के स्वर कानों में न पड़े
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  -स्वर भी, हम भी : सँकरी गलियों में भूले-भटके ।
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जाना नहीं कि सरसों का रँग कैसा होता है,
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  -जब बसंत आया : हम जैसे अन्धे बने रहे ।
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सावन में फ़ुरसत ही पाई नहीं मिनट भर की
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-घर की सीलन, छत की टपकन ने उलझा रक्खा ।
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सचमुच हम थे कितने झूठे, कैसे धोखेबाज ।
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कहते फिरे हमेंशा जो सबसे-
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'हमें बहुत प्रिय है सौन्दर्य ।
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सुन्दरता के लिए हमारा जीवन अर्पित है ।'
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'हम कुरूपता को धरती पर देख नहीं सकते,
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हम सुन्दरता के प्रेमी हैं ।'-
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  ऐसा कहनेवाले हम थे कितने झूठे, कैसे धोखेबाज़।
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कवियों का विद्रोह 
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'चाँदनी चंदन सदृश' :
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  हम क्यों लिखें ?
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मुख हमें कमलों-सरीखे
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  क्यों दिखें ?
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  हम लिखेंगे :
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चाँदनी उस रूपये-सी है
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कि जिसमें
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चमक है, पर खनक ग़ायब है ।
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हम कहेंगे ज़ोर से :
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मुँह घर-अजायब है …
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(जहाँ पर बेतुके, अनमोल, ज़िन्दा और मुर्दा भाव रहते हैं ।)
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जिज्ञासु की कथा
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पुछताछ के दफ़्तर में
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हम गये ।
+
 
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    वहाँ था काम यही
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    जो आए, पा जाए हरदम सूचना सही ।
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        हमने जो पूछा- सब जाना,
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        जो जाना उसको सच माना :
+
 
+
ऐसा सच-
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जो व्यापित हो कल्पों में, युग में, संवत्सर में ।
+
हाँ, पूछताछ के दफ़्तर में
+
हम गये ।
+
 
+
  हम जान गये- गाड़ी आती है सात बजे,
+
  नौ …दस…ग्यारह बज गये
+
  मगर गाड़ी का पता नहीं पाया ,
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  हम मान गये –दो-दो मिल चार बनाएँगे,
+
  अरसे तक करते रहे
+
  किन्तु, हमको वह प्रश्न नहीं आया :
+
अस्पष्ट भाव कुछ
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व्यक्त किए हमने अपने कुंठित स्वर में ।
+
जब पूछताछ के दफ़्तर में ।
+
हम गये ।
+
 
+
गये थे, वापस भी आए,
+
  पूछते हो- 'क्या-क्या लाए ?'
+
अरे, लाए क्या- बस, अनुभव,
+
और भी जिज्ञासाएँ नव,
+
कि जिनके समाधान सब भ्रान्त,
+
सभी कुछ मिथ्या से आक्रान्त ,
+
प्रश्न अनगिनती, उत्तर एक ,
+
और अपने मन की यह टेक :
+
भला होता
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जो रहते अपने ही घर में ।
+
 
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आह । क्यों ? पूछताछ के दफ़्तर में हम गए ?
+
 
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|रचनाकार=अजित कुमार
+
|संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
+
}}
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अकेले तुम
+
 
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अगर दिन रहता,
+
अचानक रात आ जाती ।
+
न मैं इस तरह दुख सहता कि मानो :
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प्राण पिंजरे में पड़े हों,
+
  -द्वार हों उन्मुक्त,
+
सम्मुख हो गगन का मुक्त पारावार-
+
आकर्षण बड़े हों ।
+
  -किन्तु, पंखों के चरम अभ्यास,
+
चरणों के अतुल विश्वास
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सबके सब वहीं जकड़े खड़े हों,
+
लौह पिंजर  के भयावह सींकचों से जा अड़े हों ।
+
 
+
अगर दिन  रहता
+
अचानक रात आ जाती…
+
  -न मैं इस तरह दुख सहता ।
+
 
+
 
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किन्तु बैरिन साँझ आई-
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विगत स्मृतियों की अशुभ प्रेतात्माएँ, और
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मटमैले धुँधलके साथ लाई,
+
अचानक जैसे सुलगने लगीं नम, गीली लकड़ियाँ,
+
धुआँ वैसा ही उठा : जैसे घरों से :
+
काटता चक्कर, लकीरें छोड़ता, गहरा, अनिश्चित ,
+
हुआ मन कड़ुआ, डबाडब आँख भर आई ।
+
 
+
झुटपुटे में कहीं थोड़ा-सा उजाला,
+
कहीं ज्यादा-सा अँधेरा :
+
क्रूर, निर्दय दैत्य के आकार का घेरा बनाकर बढा…
+
मुझको लगा जैसे
+
-प्राण पिंजरे में पड़े हैं, और
+
बाहर व्याघ्र , शूकर, श्वान,-
+
सुधियों, यातनाओं, दुखों के-
+
घेरे खड़े हैं।
+
जिन्दगी के साथ ज्यों अभिशाप के फेरे पड़े हैं ।
+
 
+
तभी कोई एक पंछी
+
शाम की निस्तब्धता को तोड़ता,
+
अपने निशा-आवास को जाता हुआ बोला :
+
  व्यर्थ ही यह सब तुम्हारा दु:ख औ' अवसाद है,
+
  शाम तो रंगीन है, मदहोश है, उन्माद है,
+
  एक दिन ही नहीं, वह हर रोज़ आएगी,
+
  तुम्हारे देखते : संसार पर सोना लुटाएगी ।
+
  घुटोगे तुम, पिसोगे तुम, रुकोगे तुम
+
  -अकेले तुम ।
+
 
+
  न देगा साथ कोई पशु, न पक्षी और नर-नारी,
+
  न देगा साथ कोई फूल, पत्थर, गीत, सपना-
+
 
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  बस, अकेले तुम, अकेले तुम…
+
 
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|रचनाकार=अजित कुमार
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मनहूस कमरा 
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चौक में चमक है,
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सिविल लाइन्स सुहानी है,
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पार्क में अनोखे फूल फूले हैं,
+
खुशबू बिखरी है,
+
हवा में गीत घुले-मिले हैं…
+
 
+
सब कुछ है…और यह कमरा है।–
+
चार दीवारों में दो खिड़कियाँ,
+
एक दरवाज़ा और एक ही रोशनदान,
+
होने को तो यों वातायन काफ़ी हैं,
+
लेकिन हर समय यही ध्यान दिलाते हैं-
+
'देखो, यह कमरा है…
+
दरवाज़ा बन्द करो ।
+
खिड़कियाँ मत खोलो ।
+
सर्द हवा आकर फ़िज़ाँ में बस जायगी,
+
ठंड लग जायगी,
+
कम्बल समेट लो ।
+
हाँ…अब किताब खोलो,
+
आसमान में उगे चांद को मत देखो,
+
लाल-नीली पेंसिल हाथ में उठाओ,
+
चलो, किताब में निशान लगाओ' …
+
 
+
कमरे का यह शासन मुझे बेहद नापसन्द है ।
+
 
+
ओह, यह कमरा
+
जिसकी  फ़र्श पर धूल है,
+
कागज़ के फटे हुए पुरज़े हैं,
+
सुराही से गिरकर फैला हुआ पानी है,
+
एक कुरसी, एक मेज़, एक चारपाई के बारह पाये हैं-
+
तीनों चौपाये वे मुरदा हैं ।
+
 
+
ज़िन्दा सिर्फ़ मैं हूं या वे थोड़े से
+
चींटे, मकड़ियां और मच्छर
+
जिनको इस कमरे ने परवरिश दी है:
+
एक झींगुर किसी कोने से रात में बोलता है ।
+
 
+
छत पर मकड़ियों ने जाले लगाये हैं,
+
और यही वजह है कि
+
चाहते हुए भी मैं छत की कड़ियों को 
+
कभी नहीं देख पाता हूं-
+
कि कोई मकड़ी, कोई जाला ऊपर से गिरकर
+
कहीं आंख में न आ पड़े ।
+
 
+
दीवारों की सफ़ेदी अब मैली हो चली है,
+
पपड़े हर रोज़ उखड़कर फ़र्श पर गिरते हैं,
+
मैला फ़र्श और भी गन्दा होता है ।
+
खिड़कियों के शीशे शायद एक-दो  बचे हैं,
+
बाक़ी चौखटों में दफ़्तियां जड़ दी गयी हैं,
+
एक में टीन का पत्तर लगा है
+
जो तेज़ हवा चलने पर खड़-खड़ बजता है ।
+
 
+
ऐसा यह फटेहाल, दीन-हीन, जर्ज्रर,
+
चार दीवारों का तुच्छ, अकिंचन समूह
+
मुझ पर शासन करे,
+
मेरे अन्तर के उद्वेगों का दमन करे ।
+
यह मैं सह नहीं पाता ।
+
 
+
मन में तो आता है कि
+
मार-मार घूँसे सारी दफ़्तियाँ फ़ाड़ दूँ ,
+
शीशों को चकनाचूर कर दूँ ,
+
भड़भड़ाकर दरवाज़ा-खिड़कियाँ खोल दूँ ,
+
कम से कम एक तरफ़ की दीवार तोड़ दूँ ,
+
खूब ज़ोरों से चीखूँ-चिल्लाऊँ,
+
शोर मचाऊँ  …
+
 
+
 
+
शान्त होकर—
+
सामने के गिरजाघर की मीनार देखा करूं,
+
युकलिप्टस के पेड़ को देर तक निहारूँ,
+
मन को बादलों में भटकने को छोड़ दूँ …
+
 
+
लेकिन यह कमरा है—
+
इसका अनुशासन है,
+
बार-बार मुझको यह ध्यान दिलाता है:
+
'देखो…दरवाज़ा बन्द करो,
+
खिड़कियाँ…मत खोलो,
+
हाँ…अब किताब उठाओ,
+
ध्यान…छपे हुए अक्षरों में लगाओ,
+
चलो…लाल-नीली पेंसिल हाथ में उठाओ'…
+
 
+
और फिर
+
फीकी-फीकी विवश हँसी हँसकर
+
मैं सोचता हूँ
+
कि:
+
बाहर की हवा में गीत लहर लेते हैं,
+
भीतर मेरी साँस दीवार से टकराती है,
+
और
+
खुद मेरे ही पास लौट आती है…
+

19:51, 1 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

सोचता हूँ-
गीत लिखने से कहीं अच्छा,
जुटा लूँ हर तरफ़ से क़ीमती सामान ।
और जितने उपकरण हैं गीत के-
मन को भुलाने, और धन की, और
जन की फ़िक्र से पीछा छुड़ाने के-
युवतियाँ, प्रेम, आँसू , विरह, पीड़ा,
सेक्स की अवरुद्ध क्रीड़ा,
सुप्त मन में गड़ी फाँसें,
गरम या ठंडी उसाँसें और
सपने हार के या जीत के-
सबको क़रीने से सजाऊँ,
ढोल ज़ोरों से शहर भर में बजाऊँ,
छाप कर परचे-
गली-सड़कों-घरों में पहुँच जाऊँ-

"प्रेमियो, साहित्यिको, विक्षिप्त कवियो ।
तम-भरे संसार के अनगिनत रवियो ।
मुफ़्त ले जाओ यहाँ से माल खुदरा,
कुछ दिनों से गीत का बाज़ार उतरा
है, इसीसे भूल सारा मान या सम्मान
सोचा है कि अब इस तरफ़ दूँगा ध्यान-
मैंने खोल ली है शहर में साहित्य के परचून की दूकान,
जिसमें 'मसि' तथा 'कागद', 'कलम' से ले
'विचारों' 'भावनाओं', 'कल्पनाओं' तक
मिलेंगे हर किसिम' हर ढंग के सामान ।
आए हैं समन्दर पार से 'लेटेस्ट माँडल',
काव्य-बाला को सजाने के लिए
रंगीन आभूषन तथा परिधान ।

आएँ आप, देखें और परखें,
करेंगे मुझ पर बड़ा उपकार ।
-अजितकुमार ।"