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"विरत होओ / अजित कुमार" के अवतरणों में अंतर

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सृजन के क्षण से विरत होओ ।
 
सृजन के क्षण से विरत होओ ।
 
 
हमारे मित्र ।
 
हमारे मित्र ।
 
 
मन के भाव को परित्यक्ति दो ।
 
मन के भाव को परित्यक्ति दो ।
 
 
उसको किसी ऊसर जगह में भी नहीं बोओ
 
उसको किसी ऊसर जगह में भी नहीं बोओ
 
  
 
वह सृजन का क्षण तुम्हारा  
 
वह सृजन का क्षण तुम्हारा  
 
 
बहुत कुछ तो अशुभ है
 
बहुत कुछ तो अशुभ है
 
 
यानी कि ‘पूरा शुभ नहीं है’:
 
यानी कि ‘पूरा शुभ नहीं है’:
 
 
इस तरह का मिले इंगित
 
इस तरह का मिले इंगित
 
 
तो नहीं रोओ ।
 
तो नहीं रोओ ।
 
 
मौन रहकर :बोझ सहकर
 
मौन रहकर :बोझ सहकर
 
 
सृजन के क्षण से विरत होओ ।
 
सृजन के क्षण से विरत होओ ।
 
  
 
उस समय रचना करोगे
 
उस समय रचना करोगे
 
 
तो जगत का कष्ट तुम, सच ना हरोगे ।
 
तो जगत का कष्ट तुम, सच ना हरोगे ।
 
 
और, सम्भव है कि : उलटे बढाओगे ।  
 
और, सम्भव है कि : उलटे बढाओगे ।  
 
 
बढाने से बचो,  
 
बढाने से बचो,  
 
 
कुछ भी मत रचो ।
 
कुछ भी मत रचो ।
 
 
और वह क्षण बीत जाने दो ।
 
और वह क्षण बीत जाने दो ।
 
 
घिरा हो तुममें बहुत : सब रीत जाने दो ।
 
घिरा हो तुममें बहुत : सब रीत जाने दो ।
 
 
उमड़-घुमड़न, कुहासा, या तड़प, अकुलाहट :
 
उमड़-घुमड़न, कुहासा, या तड़प, अकुलाहट :
 
 
शून्य में, सुनसान में, आती हुई ‘आहट’ :
 
शून्य में, सुनसान में, आती हुई ‘आहट’ :
 
 
सभी खोओ ।
 
सभी खोओ ।
 
 
सृजन के क्षण से विरत होओ ।
 
सृजन के क्षण से विरत होओ ।
 
  
 
हे हमारे । बहुत प्यारे ।
 
हे हमारे । बहुत प्यारे ।
 
 
इन दिनों अकसर सृजन, संहार होता है,
 
इन दिनों अकसर सृजन, संहार होता है,
 
 
एक का दुर्भाव सबपर भार होता है,
 
एक का दुर्भाव सबपर भार होता है,
 
 
इसलिए दुर्भाव को रोको  ।
 
इसलिए दुर्भाव को रोको  ।
 
 
इसलिए हर भाव को प्रारंभ में टोको ।
 
इसलिए हर भाव को प्रारंभ में टोको ।
 
 
 
इसलिए, बस इसलिए—
 
इसलिए, बस इसलिए—
 
 
हर सृजन के पल को नहीं मानो,
 
हर सृजन के पल को नहीं मानो,
 
 
बल्कि उसकी सत्यता को खूब पहचानो ।
 
बल्कि उसकी सत्यता को खूब पहचानो ।
 
  
 
सत्य को अभिव्यक्ति दो,
 
सत्य को अभिव्यक्ति दो,
 
 
अपनी अकातर भक्ति दो ।
 
अपनी अकातर भक्ति दो ।
 
 
लेकिन उसीको ;
 
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अन्यथा तुम सृजन के क्षण से विरत होओ ।
 
अन्यथा तुम सृजन के क्षण से विरत होओ ।
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20:42, 1 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

सृजन के क्षण से विरत होओ ।
हमारे मित्र ।
मन के भाव को परित्यक्ति दो ।
उसको किसी ऊसर जगह में भी नहीं बोओ

वह सृजन का क्षण तुम्हारा
बहुत कुछ तो अशुभ है
यानी कि ‘पूरा शुभ नहीं है’:
इस तरह का मिले इंगित
तो नहीं रोओ ।
मौन रहकर :बोझ सहकर
सृजन के क्षण से विरत होओ ।

उस समय रचना करोगे
तो जगत का कष्ट तुम, सच ना हरोगे ।
और, सम्भव है कि : उलटे बढाओगे ।
बढाने से बचो,
कुछ भी मत रचो ।
और वह क्षण बीत जाने दो ।
घिरा हो तुममें बहुत : सब रीत जाने दो ।
उमड़-घुमड़न, कुहासा, या तड़प, अकुलाहट :
शून्य में, सुनसान में, आती हुई ‘आहट’ :
सभी खोओ ।
सृजन के क्षण से विरत होओ ।

हे हमारे । बहुत प्यारे ।
इन दिनों अकसर सृजन, संहार होता है,
एक का दुर्भाव सबपर भार होता है,
इसलिए दुर्भाव को रोको ।
इसलिए हर भाव को प्रारंभ में टोको ।
इसलिए, बस इसलिए—
हर सृजन के पल को नहीं मानो,
बल्कि उसकी सत्यता को खूब पहचानो ।

सत्य को अभिव्यक्ति दो,
अपनी अकातर भक्ति दो ।
लेकिन उसीको ;

अन्यथा तुम सृजन के क्षण से विरत होओ ।