"पुनरावृत्तियाँ / अजित कुमार" के अवतरणों में अंतर
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'''1 | '''1 | ||
(रात के पिछले पहर में | (रात के पिछले पहर में | ||
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स्वप्न टूटा । | स्वप्न टूटा । | ||
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दीप की लौ आखिरी-सा | दीप की लौ आखिरी-सा | ||
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उस समय था | उस समय था | ||
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भोर का तारा टिमकता । | भोर का तारा टिमकता । | ||
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चाँद की टूटी लहर में | चाँद की टूटी लहर में | ||
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तैरती-सी दिख गयीं अरुणाभ किरनें …) | तैरती-सी दिख गयीं अरुणाभ किरनें …) | ||
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--बार-बार मैंने यह सोचा : | --बार-बार मैंने यह सोचा : | ||
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चलो, आज से नयी ज़िन्दगी शुरू हुई । | चलो, आज से नयी ज़िन्दगी शुरू हुई । | ||
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::एक लड़ाई लड़ी, खतम की | ::एक लड़ाई लड़ी, खतम की | ||
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आगे की मंज़िल, पहले की मंज़िल से | आगे की मंज़िल, पहले की मंज़िल से | ||
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है कुछ तो भिन्न, भिन्न, और शायद विच्छिन्न । | है कुछ तो भिन्न, भिन्न, और शायद विच्छिन्न । | ||
+ | तबसे बीत गये कितने ही लम्बे-आड़े-तिरछे वर्ष । | ||
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लेकिन पाता हूं- | लेकिन पाता हूं- | ||
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अब भी हैं : वही, वही, वे ही संघर्ष । | अब भी हैं : वही, वही, वे ही संघर्ष । | ||
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जो पहले था, वही आज हैं- | जो पहले था, वही आज हैं- | ||
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वही स्वप्न, वे ही आदर्श । | वही स्वप्न, वे ही आदर्श । | ||
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(हाय । कैसी थी कहानी । | (हाय । कैसी थी कहानी । | ||
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अश्रु के भीगे कणों से, | अश्रु के भीगे कणों से, | ||
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प्यार के मीठे क्षणों से रची | प्यार के मीठे क्षणों से रची | ||
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वह कैसी कहानी । | वह कैसी कहानी । | ||
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कौन जाने कब सुनी थी, | कौन जाने कब सुनी थी, | ||
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कहाँ की थी, और किसकी ? | कहाँ की थी, और किसकी ? | ||
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किन्तु अब भी बची | किन्तु अब भी बची | ||
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वह कैसी कहानी ?…) | वह कैसी कहानी ?…) | ||
− | |||
-कितनी बार किया यह निश्चय : | -कितनी बार किया यह निश्चय : | ||
− | |||
अब किताब को पढकर रोना खत्म हुआ । | अब किताब को पढकर रोना खत्म हुआ । | ||
− | |||
एक उम्र थी: नहीं रही । | एक उम्र थी: नहीं रही । | ||
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अब किताब को पढकर सिर्फ़ विचारेंगे, | अब किताब को पढकर सिर्फ़ विचारेंगे, | ||
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बिसरा देंगे ज़्यादातर, थोड़ा-सा मन में धारेंगे । | बिसरा देंगे ज़्यादातर, थोड़ा-सा मन में धारेंगे । | ||
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::::लेकिन यह सब नहीं हुआ । | ::::लेकिन यह सब नहीं हुआ । | ||
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::::उसको ‘कृत्रिम’ कहा अगर, | ::::उसको ‘कृत्रिम’ कहा अगर, | ||
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::::‘यह’ ज़्यादा कृत्रिम जान पड़ा । | ::::‘यह’ ज़्यादा कृत्रिम जान पड़ा । | ||
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::::सहज बनूँ कैसे ? | ::::सहज बनूँ कैसे ? | ||
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:::::उधेड़बुन यही शुरु से थी : | :::::उधेड़बुन यही शुरु से थी : | ||
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:::::अब भी । | :::::अब भी । | ||
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'''3 | '''3 | ||
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(कितनी अकेली राह थी, | (कितनी अकेली राह थी, | ||
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कैसा अकेला साथ था । | कैसा अकेला साथ था । | ||
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बेहद थके, डगमग क़दम । | बेहद थके, डगमग क़दम । | ||
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लेकिन | लेकिन | ||
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कहाँ वह हाथ था— | कहाँ वह हाथ था— | ||
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जो बढे आगे, थाम ले । …) | जो बढे आगे, थाम ले । …) | ||
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--हुआ नहीं कोई भी अपना । | --हुआ नहीं कोई भी अपना । | ||
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नहीं टूटता पर वह सपना । | नहीं टूटता पर वह सपना । | ||
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बार-बार जो सोच रहे थे हम | बार-बार जो सोच रहे थे हम | ||
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कि अकेले ही रह लेंगे । | कि अकेले ही रह लेंगे । | ||
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चलो, अकेले ही रह लेंगे । | चलो, अकेले ही रह लेंगे । | ||
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बार-बार वह झूठा निकला : | बार-बार वह झूठा निकला : | ||
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एक न एक चाँद मुस्काया किया, | एक न एक चाँद मुस्काया किया, | ||
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ज्वार बनकर मैं उमड़ा । | ज्वार बनकर मैं उमड़ा । | ||
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'''4 | '''4 | ||
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(राग का जादू हिरन पर छा गया । | (राग का जादू हिरन पर छा गया । | ||
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वह कुलाँचें मारनेवाला | वह कुलाँचें मारनेवाला | ||
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खिंचा-सा आ गया…) | खिंचा-सा आ गया…) | ||
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--कई बार यह हुआ कि | --कई बार यह हुआ कि | ||
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अब संगीत सुनेंगे कभी नहीं । | अब संगीत सुनेंगे कभी नहीं । | ||
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मोहक जो संगीत कहाता : मुझको | मोहक जो संगीत कहाता : मुझको | ||
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::सिर्फ़ उबाता है । | ::सिर्फ़ उबाता है । | ||
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गहराई से खींच, धरातल पर मुझको | गहराई से खींच, धरातल पर मुझको | ||
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::ले आता है । | ::ले आता है । | ||
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::लेकिन जब भी, जब भी | ::लेकिन जब भी, जब भी | ||
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::काँपे थरथर-थरथर तार, | ::काँपे थरथर-थरथर तार, | ||
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::और उमड़ी-लहराई स्वर की करुणा-धार | ::और उमड़ी-लहराई स्वर की करुणा-धार | ||
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काँपने लगे होंठ हर बार, | काँपने लगे होंठ हर बार, | ||
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धड़कने लगे प्राण के तार । | धड़कने लगे प्राण के तार । | ||
'''5 | '''5 | ||
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(एक घर था | (एक घर था | ||
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और उसके द्वार में ताला जड़ा था । | और उसके द्वार में ताला जड़ा था । | ||
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बन्द घर को कौन खोले । | बन्द घर को कौन खोले । | ||
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स्तब्धता में कौन बोले । …) | स्तब्धता में कौन बोले । …) | ||
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--ऊँचे शिखरों के प्रति मेरी वृहत कल्पना | --ऊँचे शिखरों के प्रति मेरी वृहत कल्पना | ||
− | |||
बार-बार रह गई सिर्फ़ टेढी-मेढी, सँकरी गलियों तक | बार-बार रह गई सिर्फ़ टेढी-मेढी, सँकरी गलियों तक | ||
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::इनसे बाहर हटकर, उठकर | ::इनसे बाहर हटकर, उठकर | ||
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::किसी अपरिचित ऊँचाई तक जाने की | ::किसी अपरिचित ऊँचाई तक जाने की | ||
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::जो साध बड़ी थी, | ::जो साध बड़ी थी, | ||
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::उसके आगे एक अजब दीवार… | ::उसके आगे एक अजब दीवार… | ||
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'''1 | '''1 | ||
…एक बार का सोचा-समझा | …एक बार का सोचा-समझा | ||
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बार-बार क्यों सच लगता ? | बार-बार क्यों सच लगता ? | ||
− | |||
बीच-बीच में ‘झूठ’ समझकर भी | बीच-बीच में ‘झूठ’ समझकर भी | ||
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क्यों उसमें मन रमता । | क्यों उसमें मन रमता । | ||
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आज : ‘झूठ’, कल : ‘सच’ दिखनेवाली माया का अन्त कहाँ ? | आज : ‘झूठ’, कल : ‘सच’ दिखनेवाली माया का अन्त कहाँ ? | ||
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'''2 | '''2 | ||
स्वप्न वहाँ हैं | स्वप्न वहाँ हैं | ||
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और यहाँ पर परिणति है । | और यहाँ पर परिणति है । | ||
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कृत्रिम उधर | कृत्रिम उधर | ||
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और आवेगों की क्यों इधर अपरिमिति है ? | और आवेगों की क्यों इधर अपरिमिति है ? | ||
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'''3 | '''3 | ||
− | |||
कौन कहाँ से आया | कौन कहाँ से आया | ||
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इसका तो कुछ भी आभास नहीं । | इसका तो कुछ भी आभास नहीं । | ||
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एक मुझी में इतना सब कुछ था | एक मुझी में इतना सब कुछ था | ||
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यह भी विश्वास नहीं । | यह भी विश्वास नहीं । | ||
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− | |||
क्यों दुहराया तुमने उसको | क्यों दुहराया तुमने उसको | ||
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कहो, उसे क्यों दुहराया ? | कहो, उसे क्यों दुहराया ? | ||
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भूल नहीं पाये क्यों इसको ? | भूल नहीं पाये क्यों इसको ? | ||
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भूलो, अब तो भूलो सब । | भूलो, अब तो भूलो सब । | ||
− | + | '''5 | |
− | 5 | + | |
− | + | ||
जो दीवारें थीं लोहे की, | जो दीवारें थीं लोहे की, | ||
− | |||
वे दीवारें हैं लोहे की, | वे दीवारें हैं लोहे की, | ||
− | |||
जैसी थीं वे, वैसी ही हैं । | जैसी थीं वे, वैसी ही हैं । | ||
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-ऊँचे सिखर किन्तु अब उतने ऊँचे नहीं रहे । | -ऊँचे सिखर किन्तु अब उतने ऊँचे नहीं रहे । | ||
− | |||
पुनरावर्तन, प्रत्यावर्तन किसने नही सहा। | पुनरावर्तन, प्रत्यावर्तन किसने नही सहा। | ||
− | |||
लेकिन | लेकिन | ||
− | |||
लौटे हुए व्यक्ति के लिये | लौटे हुए व्यक्ति के लिये | ||
− | |||
शिखर तक जाना | शिखर तक जाना | ||
− | |||
उतना दुर्लभ नहीं रहा । | उतना दुर्लभ नहीं रहा । | ||
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20:58, 1 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
1
(रात के पिछले पहर में
स्वप्न टूटा ।
दीप की लौ आखिरी-सा
उस समय था
भोर का तारा टिमकता ।
चाँद की टूटी लहर में
तैरती-सी दिख गयीं अरुणाभ किरनें …)
--बार-बार मैंने यह सोचा :
चलो, आज से नयी ज़िन्दगी शुरू हुई ।
एक लड़ाई लड़ी, खतम की
आगे की मंज़िल, पहले की मंज़िल से
है कुछ तो भिन्न, भिन्न, और शायद विच्छिन्न ।
तबसे बीत गये कितने ही लम्बे-आड़े-तिरछे वर्ष ।
लेकिन पाता हूं-
अब भी हैं : वही, वही, वे ही संघर्ष ।
जो पहले था, वही आज हैं-
वही स्वप्न, वे ही आदर्श ।
2
(हाय । कैसी थी कहानी ।
अश्रु के भीगे कणों से,
प्यार के मीठे क्षणों से रची
वह कैसी कहानी ।
कौन जाने कब सुनी थी,
कहाँ की थी, और किसकी ?
किन्तु अब भी बची
वह कैसी कहानी ?…)
-कितनी बार किया यह निश्चय :
अब किताब को पढकर रोना खत्म हुआ ।
एक उम्र थी: नहीं रही ।
अब किताब को पढकर सिर्फ़ विचारेंगे,
बिसरा देंगे ज़्यादातर, थोड़ा-सा मन में धारेंगे ।
लेकिन यह सब नहीं हुआ ।
उसको ‘कृत्रिम’ कहा अगर,
‘यह’ ज़्यादा कृत्रिम जान पड़ा ।
सहज बनूँ कैसे ?
उधेड़बुन यही शुरु से थी :
अब भी ।
3
(कितनी अकेली राह थी,
कैसा अकेला साथ था ।
बेहद थके, डगमग क़दम ।
लेकिन
कहाँ वह हाथ था—
जो बढे आगे, थाम ले । …)
--हुआ नहीं कोई भी अपना ।
नहीं टूटता पर वह सपना ।
बार-बार जो सोच रहे थे हम
कि अकेले ही रह लेंगे ।
चलो, अकेले ही रह लेंगे ।
बार-बार वह झूठा निकला :
एक न एक चाँद मुस्काया किया,
ज्वार बनकर मैं उमड़ा ।
4
(राग का जादू हिरन पर छा गया ।
वह कुलाँचें मारनेवाला
खिंचा-सा आ गया…)
--कई बार यह हुआ कि
अब संगीत सुनेंगे कभी नहीं ।
मोहक जो संगीत कहाता : मुझको
सिर्फ़ उबाता है ।
गहराई से खींच, धरातल पर मुझको
ले आता है ।
लेकिन जब भी, जब भी
काँपे थरथर-थरथर तार,
और उमड़ी-लहराई स्वर की करुणा-धार
काँपने लगे होंठ हर बार,
धड़कने लगे प्राण के तार ।
5
(एक घर था
और उसके द्वार में ताला जड़ा था ।
बन्द घर को कौन खोले ।
स्तब्धता में कौन बोले । …)
--ऊँचे शिखरों के प्रति मेरी वृहत कल्पना
बार-बार रह गई सिर्फ़ टेढी-मेढी, सँकरी गलियों तक
इनसे बाहर हटकर, उठकर
किसी अपरिचित ऊँचाई तक जाने की
जो साध बड़ी थी,
उसके आगे एक अजब दीवार…
1
…एक बार का सोचा-समझा
बार-बार क्यों सच लगता ?
बीच-बीच में ‘झूठ’ समझकर भी
क्यों उसमें मन रमता ।
आज : ‘झूठ’, कल : ‘सच’ दिखनेवाली माया का अन्त कहाँ ?
2
स्वप्न वहाँ हैं
और यहाँ पर परिणति है ।
कृत्रिम उधर
और आवेगों की क्यों इधर अपरिमिति है ?
3
कौन कहाँ से आया
इसका तो कुछ भी आभास नहीं ।
एक मुझी में इतना सब कुछ था
यह भी विश्वास नहीं ।
4
क्यों दुहराया तुमने उसको
कहो, उसे क्यों दुहराया ?
भूल नहीं पाये क्यों इसको ?
भूलो, अब तो भूलो सब ।
5
जो दीवारें थीं लोहे की,
वे दीवारें हैं लोहे की,
जैसी थीं वे, वैसी ही हैं ।
-ऊँचे सिखर किन्तु अब उतने ऊँचे नहीं रहे ।
पुनरावर्तन, प्रत्यावर्तन किसने नही सहा।
लेकिन
लौटे हुए व्यक्ति के लिये
शिखर तक जाना
उतना दुर्लभ नहीं रहा ।