"जीवन-सम्बन्धी दो और कवितायें / अजित कुमार" के अवतरणों में अंतर
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(1) | (1) |
21:09, 1 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
(1)
सत्य है, हमने बहुत संघर्ष झेले ।
किन्तु वे सब हमारे मन में हुए थे ।
हम बहुत आगे बढे ।
लेकिन हमारी कल्पना के अश्व केवल,
खींचते थे ।
हम बहुत जिन्दा रहे ।
लेकिन
निकट से भी निकट की वस्तु,
मोहक, बहुत मोहक रूप,
मादक, और मादक स्वर…
किसी को भी :
नहीं छू, देख, सुन पाए ।
अरे, हम तो विचारों में जिए थे ।
(2)
मैं आशाओं में जीवित हूँ ।
वह लहर अभी उठकर छू लेगी चाँद,
यह भाव झूमकर बन जाएगा गीत,
इस अन्तहीन यात्रा का होगा अन्त,
उस भटक रहे को मिल जाएगी राह,
जो है वह अभी और होने को है—
इन आशाओं पर जीवित हूँ ।
बुझती-सी लौ जलती ही जाएगी,
छिपती-छिपती-सी किरन मस्त होकर इठलाएगी,
ये सिले हुए-से ओंठ हिलेंगे,
कलियों-पंखुरियों-जैसे खिलकर मुसकाएँगे,
वे बन्द किवाड़े पलक झपकते ही खुल जाएँगे—
इन आशाओं से जीवित हूँ ।
मैं ठगा-ठगा-सा देख रहा हूँ जितना सूनापन,
वह सब जादू से
क्षण भर में
बन जाएगा मधुबन—
मैं और किसी के लिए नहीं,
इन आशाओं की खातिर जीवित हूँ ।