"सुलभ / अजित कुमार" के अवतरणों में अंतर
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यह तो मेरी मर्ज़ी है | यह तो मेरी मर्ज़ी है |
21:16, 1 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
यह तो मेरी मर्ज़ी है
कि सोऊँ या न सोऊँ,
इसमें दख़ल देना किसी के बस की बात नहीं ।
चाहे नगाड़े हों
या बम
या कि औरतें…
सोनेवाले सो ही जाते हैं ।
उनमें से अनेक
फिर उठाने पर भी नहीं उठते ।
किसने कहा था कि
मनुष्य जनमता है आज़ाद,
लेकिन उसके बाद
हर तरफ़,
हमेशा
जकड़ा रहता है ।
मूरख था वह,
(यों दूसरे भी कुछ कम नहीं ।)
अपनी मर्ज़ी का मालिक हूँ ,
खाता हूँ मज़े से,
और
रोता हूँ ज़ार-ज़ार ।
खरचता हूँ धड़ल्ले से,
वह
जो लाया था कल उधार…
मिलता है ।
क्या है, जो नहीं मिलता ।
पाने के लिये आप
तनिक
हाथ तो बढा दें—
वह क़दमों पर
बिछ जाएगा ।
पर ऐसा क्या है
जिसे
आप सचमुच पाना चाहें ।
दुनिया में एक ऐसा आदमी है
जो कभी भी नहीं सोया ।
किसी छोटे-से देश के एक अज्ञात-से
नगर में वह रहता है ।
कोई मसख़रा पत्रकार वहाँ गया
(या न गया)
और एक सनसनीख़ेज़ ख़बर
पत्रों में छप गई ।
अगले दिन वह
बेचारा वह
व्यक्ति
मरा पाया गया ।
आपसे ही पूछता हूँ-
किस पर लग गई रोक ?
उस पर या उन पर
या इस पर
या आप पर ?
खुशी से फाड़ दें इसे
या
लिख दें कोई और नाम । अपना—
या राम का
या फिर रहने दें
अपने राम का ।
सादे काग़ज़ का मूल्य
छपे हुए से
सदा
ज़्यादा है ।
एक है खरा माल
जबकि दूसरा है
महज़ रद्दी ।
शब्द जो छपे हैं, कितने छूँछे हैं ।
आप जो भी माँगेंगे, सब दूँगा ।
-वह सुलभ है ।
सिर्फ़ इतना बतला दें :
बिस्तर पर मेरी छटपटाहटें,
बेचैन करवटें…
शब्दों में बँधकर भी
अनबँधी
क्यों रह जाती हैं ?