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बुरे वक़्त में जम जाती है कविता भीतर
 
बुरे वक़्त में जम जाती है कविता भीतर

22:55, 1 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

बुरे वक़्त में जम जाती है कविता भीतर
मानो पानी का नल जम गया हो

चुभते हैं बरफ के महीन क्रिस्टल
छाती में

कुछ अलग ही तरह का होता है, दर्द
कविता के भीतर जम जाने का

पहचान में नहीं आता मर्ज़
न मिलती है कोई `चाबी´
`स्विच ऑफ´ ही रहता है अकसर
सेलफोन फिटर का।