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"कतकी पूनो / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

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मन में दुबकी है हुलास ज्यों परछाईं हो चोर की--
 
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तेरी बाट अगोरते ये आँखें हुईं चकोर की !
 
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23:34, 1 नवम्बर 2009 का अवतरण

छिटक रही है चांदनी,
मदमाती, उन्मादिनी,
कलगी-मौर सजाव ले
कास हुए हैं बावले,
पकी ज्वार से निकल शशों की जोड़ी गई फलांगती--
सन्नाटे में बाँक नदी की जगी चमक कर झाँकती !

कुहरा झीना और महीन,
झर-झर पड़े अकास नीम;
उजली-लालिम मालती
गन्ध के डोरे डालती;
मन में दुबकी है हुलास ज्यों परछाईं हो चोर की--
तेरी बाट अगोरते ये आँखें हुईं चकोर की !