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असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 1

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|रचनाकार=अज्ञेय
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[[Category:लम्बी कवितारचना]]{{KKPageNavigation|आगे=असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 2|सारणी=असाध्य वीणा / अज्ञेय}}[[चित्र:Vichitra Veena1.jpg]]<poem>आ गये प्रियंवद ! केशकम्बली ! गुफा-गेह ! राजा ने आसन दिया। कहा : "कृतकृत्य हुआ मैं तात ! पधारे आप। भरोसा है अब मुझ को साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी !"
[[चित्र:Veena_instrument.jpg]]लघु संकेत समझ राजा का गण दौड़े ! लाये असाध्य वीणा, साधक के आगे रख उसको, हट गये। सभा की उत्सुक आँखें एक बार वीणा को लख, टिक गयीं प्रियंवद के चेहरे पर।
आ गये प्रियंवद ! केशकम्बली ! गुफा"यह वीणा उत्तराखंड के गिरि-गेह !<br>प्रान्तर से राजा ने आसन दिया। कहा :<br>--घने वनों में जहाँ व्रत करते हैं व्रतचारी -- "कृतकृत्य हुआ मैं तात ! पधारे आप।<br>बहुत समय पहले आयी थी। भरोसा पूरा तो इतिहास न जान सके हम : किन्तु सुना है अब मुझ को<br>साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी !"<br><br>वज्रकीर्ति ने मंत्रपूत जिस अति प्राचीन किरीटी-तरु से इसे गढा़ था -- उसके कानों में हिम-शिखर रहस्य कहा करते थे अपने, कंधों पर बादल सोते थे, उसकी करि-शुंडों सी डालें
लघु संकेत समझ राजा का<br>गण दौड़े ! लाये असाध्य वीणा,<br>साधक के आगे रख उसको, हट गये।<br>सभा की उत्सुक आँखें<br>एक बार वीणा को लख, टिक गयीं<br>प्रियंवद के चेहरे पर।<br><br>[[चित्र:Vichitra Veena1.jpg]]
"यह वीणा उत्तराखंड के गिरिहिम-प्रान्तर वर्षा से<br>पूरे वन--घने वनों यूथों का कर लेती थीं परित्राण, कोटर में जहाँ व्रत करते हैं व्रतचारी --<br>भालू बसते थे, बहुत समय पहले आयी थी।<br>केहरि उसके वल्कल से कंधे खुजलाने आते थे। पूरा तो इतिहास न जान सके हम :<br>किन्तु और --सुना है<br>-- जड़ उसकी जा पँहुची थी पाताल-लोक, वज्रकीर्ति ने मंत्रपूत जिस<br>उसकी गंध-प्रवण शीतलता से फण टिका नाग वासुकि सोता था। अति प्राचीन उसी किरीटी-तरु से वज्रकीर्ति ने सारा जीवन इसे गढा़ था : हठ-साधना यही थी उस साधक की -<br>उसके कानों में हिम-शिखर रहस्य कहा करते थे अपने,<br>कंधों पर बादल सोते थेवीणा पूरी हुई,<br>उसकी करिसाथ साधना, साथ ही जीवन-शुंडों सी डालें<br><br>लीला।"
[[चित्रराजा रुके साँस लम्बी लेकर फिर बोले :Veena_instrument.jpg]]<br><br>"मेरे हार गये सब जाने-माने कलावन्त, सबकी विद्या हो गई अकारथ, दर्प चूर, कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका। अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गयी। पर मेरा अब भी है विश्वास कृच्छ-तप वज्रकीर्ति का व्यर्थ नहीं था। वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी। इसे जब सच्चा स्वर-सिद्ध गोद में लेगा। तात! प्रियंवद! लो, यह सम्मुख रही तुम्हारे वज्रकीर्ति की वीणा, यह मैं, यह रानी, भरी सभा यह : सब उदग्र, पर्युत्सुक, जन मात्र प्रतीक्षमाण !"
हिम-वर्षा से पूरे वन-यूथों का कर लेती थीं परित्राण,<br>कोटर में भालू बसते थे,<br>केहरि उसके वल्कल से कंधे खुजलाने आते थे।<br>और --सुना है-- जड़ उसकी जा पँहुची थी पाताल-लोक,<br>उसकी गंध-प्रवण शीतलता से फण टिका नाग वासुकि सोता था।<br>उसी किरीटी-तरु से वज्रकीर्ति ने<br>सारा जीवन इसे गढा़ [[चित्र:<br>हठ-साधना यही थी उस साधक की --<br>वीणा पूरी हुई, साथ साधना, साथ ही जीवन-लीला।"<br><br>Vichitra Veena1.jpg]]
राजा रुके साँस लम्बी लेकर फिर बोले :<br>"मेरे हार गये सब जानेकेश-कम्बली गुफा-माने कलावन्त,<br>सबकी विद्या हो गई अकारथ, दर्प चूर,<br>कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका।<br>अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गयी।<br>गेह ने खोला कम्बल। धरती पर मेरा अब भी है विश्वास<br>कृच्छ-तप वज्रकीर्ति का व्यर्थ नहीं था।<br>चुपचाप बिछाया। वीणा बोलेगी अवश्य, उस पर तभी।<br>इसे जब सच्चा स्वर-सिद्ध गोद में लेगा।<br>तात! प्रियंवद! लोरख, यह सम्मुख रही तुम्हारे<br>वज्रकीर्ति की वीणापलक मूँद कर प्राण खींच,<br>यह मैं, यह रानी, भरी सभा यह :<br>सब उदग्र, पर्युत्सुककरके प्रणाम,<br>जन मात्र प्रतीक्षमाण !"<br><br>अस्पर्श छुअन से छुए तार।
[[चित्रधीरे बोला :Veena_instrument.jpg]]<br><br>"राजन! पर मैं तो कलावन्त हूँ नहीं, शिष्य, साधक हूँ-- जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी। वज्रकीर्ति! प्राचीन किरीटी-तरु! अभिमन्त्रित वीणा! ध्यान-मात्र इनका तो गदगद कर देने वाला है।"
केश-कम्बली गुफा-गेह ने खोला कम्बल।<br>चुप हो गया प्रियंवद। धरती पर चुपचाप बिछाया।<br>वीणा उस पर रख, पलक मूँद कर प्राण खींच,<br>करके प्रणाम,<br>अस्पर्श छुअन से छुए तार।<br><br>सभा भी मौन हो रही।
धीरे बोला : "राजन! पर मैं तो<br>कलावन्त हूँ नहीं, शिष्य, साधक हूँ--<br>जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी।<br>वज्रकीर्ति!<br>प्राचीन किरीटी-तरु!<br>अभिमन्त्रित वीणा!<br>ध्यान-मात्र इनका तो गदगद कर देने वाला है।"<br><br> चुप हो गया प्रियंवद।<br>सभा भी मौन हो रही।<br><br> वाद्य उठा साधक ने गोद रख लिया।<br>धीरे-धीरे झुक उस पर, तारों पर मस्तक टेक दिया।<br>सभा चकित थी -- अरे, प्रियंवद क्या सोता है?<br>केशकम्बली अथवा होकर पराभूत<br>झुक गया तार पर?<br>वीणा सचमुच क्या है असाध्य?<br>पर उस स्पन्दित सन्नाटे में<br>मौन प्रियंवद साध रहा था वीणा--<br>नहीं, अपने को शोध रहा था।<br>सघन निविड़ में वह अपने को<br><br>
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</poem>
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