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| − | [[चित्र:  | + | [[चित्र:Vichitra Veena1.jpg]]  | 
| + | <poem>  | ||
| + | आ गये प्रियंवद ! केशकम्बली ! गुफा-गेह !   | ||
| + | राजा ने आसन दिया। कहा :   | ||
| + | "कृतकृत्य हुआ मैं तात ! पधारे आप।   | ||
| + | भरोसा है अब मुझ को   | ||
| + | साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी !"    | ||
| − | + | लघु संकेत समझ राजा का   | |
| − | राजा   | + | गण दौड़े ! लाये असाध्य वीणा,   | 
| − | + | साधक के आगे रख उसको, हट गये।   | |
| − | + | सभा की उत्सुक आँखें   | |
| − | + | एक बार वीणा को लख, टिक गयीं   | |
| + | प्रियंवद के चेहरे पर।    | ||
| − | + | "यह वीणा उत्तराखंड के गिरि-प्रान्तर से   | |
| − | + | --घने वनों में जहाँ व्रत करते हैं व्रतचारी --   | |
| − | + | बहुत समय पहले आयी थी।   | |
| − | + | पूरा तो इतिहास न जान सके हम :   | |
| − | + | किन्तु सुना है   | |
| − | + | वज्रकीर्ति ने मंत्रपूत जिस   | |
| + | अति प्राचीन किरीटी-तरु से इसे गढा़ था --   | ||
| + | उसके कानों में हिम-शिखर रहस्य कहा करते थे अपने,    | ||
| + | कंधों पर बादल सोते थे,   | ||
| + | उसकी करि-शुंडों सी डालें    | ||
| − | + | [[चित्र:Vichitra Veena1.jpg]]    | |
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| − | + | हिम-वर्षा से पूरे वन-यूथों का कर लेती थीं परित्राण,   | |
| + | कोटर में भालू बसते थे,   | ||
| + | केहरि उसके वल्कल से कंधे खुजलाने आते थे।   | ||
| + | और --सुना है-- जड़ उसकी जा पँहुची थी पाताल-लोक,   | ||
| + | उसकी गंध-प्रवण शीतलता से फण टिका नाग वासुकि सोता था।   | ||
| + | उसी किरीटी-तरु से वज्रकीर्ति ने   | ||
| + | सारा जीवन इसे गढा़ :    | ||
| + | हठ-साधना यही थी उस साधक की --   | ||
| + | वीणा पूरी हुई, साथ साधना, साथ ही जीवन-लीला।"    | ||
| − | + | राजा रुके साँस लम्बी लेकर फिर बोले :   | |
| − | + | "मेरे हार गये सब जाने-माने कलावन्त,    | |
| − | + | सबकी विद्या हो गई अकारथ, दर्प चूर,    | |
| − | + | कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका।   | |
| − | + | अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गयी।   | |
| − | + | पर मेरा अब भी है विश्वास   | |
| − | + | कृच्छ-तप वज्रकीर्ति का व्यर्थ नहीं था।    | |
| − | + | वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी।   | |
| − | वीणा   | + | इसे जब सच्चा स्वर-सिद्ध गोद में लेगा।   | 
| + | तात! प्रियंवद! लो, यह सम्मुख रही तुम्हारे   | ||
| + | वज्रकीर्ति की वीणा,    | ||
| + | यह मैं, यह रानी, भरी सभा यह :   | ||
| + | सब उदग्र, पर्युत्सुक,   | ||
| + | जन मात्र प्रतीक्षमाण !"    | ||
| − | + | [[चित्र:Vichitra Veena1.jpg]]    | |
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| − | + | केश-कम्बली गुफा-गेह ने खोला कम्बल।   | |
| + | धरती पर चुपचाप बिछाया।   | ||
| + | वीणा उस पर रख, पलक मूँद कर प्राण खींच,   | ||
| + | करके प्रणाम,   | ||
| + | अस्पर्श छुअन से छुए तार।    | ||
| − | + | धीरे बोला : "राजन! पर मैं तो   | |
| − | + | कलावन्त हूँ नहीं, शिष्य, साधक हूँ--   | |
| − | + | जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी।   | |
| − | + | वज्रकीर्ति!   | |
| − | + | प्राचीन किरीटी-तरु!   | |
| + | अभिमन्त्रित वीणा!   | ||
| + | ध्यान-मात्र इनका तो गदगद कर देने वाला है।"    | ||
| − | + | चुप हो गया प्रियंवद।   | |
| − | + | सभा भी मौन हो रही।    | |
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| − | + | वाद्य उठा साधक ने गोद रख लिया।    | |
| − | + | धीरे-धीरे झुक उस पर, तारों पर मस्तक टेक दिया।    | |
| − | + | सभा चकित थी -- अरे, प्रियंवद क्या सोता है?    | |
| − | वाद्य उठा साधक ने गोद रख लिया।  | + | केशकम्बली अथवा होकर पराभूत    | 
| − | धीरे-धीरे झुक उस पर, तारों पर मस्तक टेक दिया।  | + | झुक गया तार पर?    | 
| − | सभा चकित थी -- अरे, प्रियंवद क्या सोता है?  | + | वीणा सचमुच क्या है असाध्य?    | 
| − | केशकम्बली अथवा होकर पराभूत  | + | पर उस स्पन्दित सन्नाटे में    | 
| − | झुक गया तार पर?  | + | मौन प्रियंवद साध रहा था वीणा--    | 
| − | वीणा सचमुच क्या है असाध्य?  | + | नहीं, अपने को शोध रहा था।    | 
| − | पर उस स्पन्दित सन्नाटे में  | + | सघन निविड़ में वह अपने को    | 
| − | मौन प्रियंवद साध रहा था वीणा--  | + | |
| − | नहीं, अपने को शोध रहा था।  | + | |
| − | सघन निविड़ में वह अपने को  | + | |
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00:29, 2 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
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आ गये प्रियंवद ! केशकम्बली ! गुफा-गेह ! 
राजा ने आसन दिया। कहा : 
"कृतकृत्य हुआ मैं तात ! पधारे आप। 
भरोसा है अब मुझ को 
साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी !"  
लघु संकेत समझ राजा का 
गण दौड़े ! लाये असाध्य वीणा, 
साधक के आगे रख उसको, हट गये। 
सभा की उत्सुक आँखें 
एक बार वीणा को लख, टिक गयीं 
प्रियंवद के चेहरे पर।  
"यह वीणा उत्तराखंड के गिरि-प्रान्तर से 
--घने वनों में जहाँ व्रत करते हैं व्रतचारी -- 
बहुत समय पहले आयी थी। 
पूरा तो इतिहास न जान सके हम : 
किन्तु सुना है 
वज्रकीर्ति ने मंत्रपूत जिस 
अति प्राचीन किरीटी-तरु से इसे गढा़ था -- 
उसके कानों में हिम-शिखर रहस्य कहा करते थे अपने, 
कंधों पर बादल सोते थे, 
उसकी करि-शुंडों सी डालें  
  
हिम-वर्षा से पूरे वन-यूथों का कर लेती थीं परित्राण, 
कोटर में भालू बसते थे, 
केहरि उसके वल्कल से कंधे खुजलाने आते थे। 
और --सुना है-- जड़ उसकी जा पँहुची थी पाताल-लोक, 
उसकी गंध-प्रवण शीतलता से फण टिका नाग वासुकि सोता था। 
उसी किरीटी-तरु से वज्रकीर्ति ने 
सारा जीवन इसे गढा़ : 
हठ-साधना यही थी उस साधक की -- 
वीणा पूरी हुई, साथ साधना, साथ ही जीवन-लीला।"  
राजा रुके साँस लम्बी लेकर फिर बोले : 
"मेरे हार गये सब जाने-माने कलावन्त, 
सबकी विद्या हो गई अकारथ, दर्प चूर, 
कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका। 
अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गयी। 
पर मेरा अब भी है विश्वास 
कृच्छ-तप वज्रकीर्ति का व्यर्थ नहीं था। 
वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी। 
इसे जब सच्चा स्वर-सिद्ध गोद में लेगा। 
तात! प्रियंवद! लो, यह सम्मुख रही तुम्हारे 
वज्रकीर्ति की वीणा, 
यह मैं, यह रानी, भरी सभा यह : 
सब उदग्र, पर्युत्सुक, 
जन मात्र प्रतीक्षमाण !"  
  
केश-कम्बली गुफा-गेह ने खोला कम्बल। 
धरती पर चुपचाप बिछाया। 
वीणा उस पर रख, पलक मूँद कर प्राण खींच, 
करके प्रणाम, 
अस्पर्श छुअन से छुए तार।  
धीरे बोला : "राजन! पर मैं तो 
कलावन्त हूँ नहीं, शिष्य, साधक हूँ-- 
जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी। 
वज्रकीर्ति! 
प्राचीन किरीटी-तरु! 
अभिमन्त्रित वीणा! 
ध्यान-मात्र इनका तो गदगद कर देने वाला है।"  
चुप हो गया प्रियंवद। 
सभा भी मौन हो रही।  
वाद्य उठा साधक ने गोद रख लिया। 
धीरे-धीरे झुक उस पर, तारों पर मस्तक टेक दिया। 
सभा चकित थी -- अरे, प्रियंवद क्या सोता है? 
केशकम्बली अथवा होकर पराभूत 
झुक गया तार पर? 
वीणा सचमुच क्या है असाध्य? 
पर उस स्पन्दित सन्नाटे में 
मौन प्रियंवद साध रहा था वीणा-- 
नहीं, अपने को शोध रहा था। 
सघन निविड़ में वह अपने को  
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