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00:38, 2 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
अन्धकार था :
सब-कुछ जाना-
पहचाना था
हुआ कभी न गया हो, फिर भी
सब-कुछ की संयति थी,
संहति थी,
स्वीकृति थी।
दिया जलाया :
अर्थहीन आकारों की यह
अर्थहीनतर भीड़-
निरर्थकता का संकुल-
निर्जल पारावार न-कारों का
यह उमड़ा आया।
कहाँ गया वह
जिस ने सब-कुछ को
ऋत के ढाँचे में बैठाया ?