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उधार / अज्ञेय

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|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
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<poem>
सवेरे उठा तो धूप खिल कर छा गई थी
और एक चिड़िया अभी-अभी गा गई थी।
सवेरे उठा तो मैनें धूप खिल कर छा गई थी<br>से कहा: मुझे थोड़ी गरमाई दोगी उधार और एक चिड़िया अभीसे कहा: थोड़ी मिठास उधार दोगी? मैनें घास की पत्ती से पूछा: तनिक हरियाली दोगी— ::तिनके की नोक-भर? शंखपुष्पी से पूछा: उजास दोगी— ::किरण की ओक-भर? मैने हवा से मांगा: थोड़ा खुलापन—बस एक प्रश्वास, लहर से: एक रोम की सिहरन-भर उल्लास। मैने आकाश से मांगी आँख की झपकी-अभी गा गई थी।<br><br>भर असीमता—उधार।
मैनें धूप सब से कहा: मुझे थोड़ी गरमाई दोगी उधार<br>मांगा, सब ने दिया । चिड़िया से कहा: थोड़ी यों मैं जिया और जीता हूँ क्योंकि यही सब तो है जीवन— गरमाई, मिठास उधार दोगी?<br>मैनें घास की पत्ती से पूछा: तनिक , हरियाली दोगी—<br>, उजाला, ::तिनके की नोक-भर? <br>गन्धवाही मुक्त खुलापन, शंखपुष्पी से पूछा: उजास दोगी—<br>::किरण की ओक-भर?<br>मैने हवा से मांगा: थोड़ा खुलापन—बस एक प्रश्वासलोच, उल्लास, लहरिल प्रवाह,<br>लहर सेऔर बोध भव्य निर्व्यास निस्सीम का: एक रोम की सिहरन-भर उल्लास।<br>मैने आकाश से मांगी<br>आँख की झपकी-भर असीमता—उधार।<br><br>ये सब उधार पाये हुए द्रव्य।
सब रात के अकेले अन्धकार में सामने से उधार मांगा, सब जागा जिस में एक अनदेखे अरूप ने दिया ।<br>पुकार कर यों मुझ से पूछा था: "क्यों जी, तुम्हारे इस जीवन के इतने विविध अनुभव हैं इतने तुम धनी हो, तो मुझे थोड़ा प्यार दोगे—उधार—जिसे मैं जिया सौ-गुने सूद के साथ लौटाऊँगा— और जीता हूँ<br>वह भी सौ-सौ बार गिन के— जब-जब मैं आऊँगा?" मैने कहा: प्यार? उधार? स्वर अचकचाया था, क्योंकि यही मेरे अनुभव से परे था ऐसा व्यवहार । उस अनदेखे अरूप ने कहा: "हाँ, क्योंकि ये ही सब चीज़ें तो है जीवन—<br>प्यार हैं— गरमाईयह अकेलापन, मिठासयह अकुलाहट, हरियालीयह असमंजस, उजालाअचकचाहट,<br>गन्धवाही मुक्त खुलापन:::आर्त अनुभव, <br>लोचयह खोज, उल्लासयह द्वैत, लहरिल प्रवाह,<br>यह असहाय और बोध भव्य निर्व्यास निस्सीम का:<br>::विरह व्यथा, ये यह अन्धकार में जाग कर सहसा पहचानना कि जो मेरा है वही ममेतर है यह सब उधार पाये हुए द्रव्य।<br><br>तुम्हारे पास है तो थोड़ा मुझे दे दो—उधार—इस एक बार— मुझे जो चरम आवश्यकता है।
रात के अकेले अन्धकार में<br>सामने से जागा जिस में<br>एक अनदेखे अरूप ने पुकार कर<br>मुझ से पूछा था: "क्यों जी,<br>तुम्हारे इस जीवन के<br>इतने विविध अनुभव हैं<br>इतने तुम धनी हो,<br>तो मुझे थोड़ा प्यार दोगे—उधार—जिसे मैं<br>सौ-गुने सूद के साथ लौटाऊँगा—<br>और वह भी सौ-सौ बार गिन के—<br>जब-जब मैं आऊँगा?"<br>मैने कहा: प्यार? उधार?<br>स्वर अचकचाया था, क्योंकि मेरे<br>अनुभव से परे था ऐसा व्यवहार ।<br>उस अनदेखे अरूप ने कहा: "हाँ,<br>क्योंकि ये ही सब चीज़ें तो प्यार हैं—<br>यह अकेलापन, यह अकुलाहट,<br>यह असमंजस, अचकचाहट,<br>:::आर्त अनुभव,यह खोज, यह द्वैत, यह असहाय<br> :::विरह व्यथा,<br>यह अन्धकार में जाग कर सहसा पहचानना <br>कि जो मेरा है वही ममेतर है<br>यह सब तुम्हारे पास है<br>तो थोड़ा मुझे दे दो—उधार—इस एक बार—<br>मुझे जो चरम आवश्यकता है।<br><br> उस ने यह कहा,<br>पर रात के घुप अंधेरे में<br>मैं सहमा हुआ चुप रहा; अभी तक मौन हूँ:<br>अनदेखे अरूप को<br>उधार देते मैं डरता हूँ:<br>क्या जाने <br> यह याचक कौन है? <br><br/poem>
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