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जीवन / अज्ञेय

128 bytes added, 06:30, 2 नवम्बर 2009
{{KKRachna
|रचनाकार=अज्ञेय
|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
}}
{{KKCatKavita}}चाबुक खाये <poem>चाबुक खाए
भागा जाता
 
सागर-तीरे
 मुँह लटकायेलटकाए
मानो धरे लकीर
 जमे खारे झागों की--की—
रिरियाता कुत्ता यह
 पूँछ लड़खड़ाती टाँगों टांगों के बीच दबाये । दबाए।
कटा हुआ
 
जाने-पहचाने सब कुछ से
 
इस सूखी तपती रेती के विस्तार से,
 
और अजाने-अनपहचाने सब से
 
दुर्गम, निर्मम, अन्तहीन
 उस ठण्डे पारावार से !</poem>
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