भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"जीवन / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
पंक्ति 4: | पंक्ति 4: | ||
|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय | |संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय | ||
}} | }} | ||
− | + | {{KKCatKavita}} | |
+ | <poem> | ||
चाबुक खाए | चाबुक खाए | ||
− | |||
भागा जाता | भागा जाता | ||
− | |||
सागर-तीरे | सागर-तीरे | ||
− | |||
मुँह लटकाए | मुँह लटकाए | ||
− | |||
मानो धरे लकीर | मानो धरे लकीर | ||
− | |||
जमे खारे झागों की— | जमे खारे झागों की— | ||
− | |||
रिरियाता कुत्ता यह | रिरियाता कुत्ता यह | ||
− | |||
पूँछ लड़खड़ाती टांगों के बीच दबाए। | पूँछ लड़खड़ाती टांगों के बीच दबाए। | ||
− | |||
− | |||
कटा हुआ | कटा हुआ | ||
− | |||
जाने-पहचाने सब कुछ से | जाने-पहचाने सब कुछ से | ||
− | |||
इस सूखी तपती रेती के विस्तार से, | इस सूखी तपती रेती के विस्तार से, | ||
− | |||
और अजाने-अनपहचाने सब से | और अजाने-अनपहचाने सब से | ||
− | |||
दुर्गम, निर्मम, अन्तहीन | दुर्गम, निर्मम, अन्तहीन | ||
− | |||
उस ठण्डे पारावार से! | उस ठण्डे पारावार से! | ||
+ | </poem> |
12:00, 2 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
चाबुक खाए
भागा जाता
सागर-तीरे
मुँह लटकाए
मानो धरे लकीर
जमे खारे झागों की—
रिरियाता कुत्ता यह
पूँछ लड़खड़ाती टांगों के बीच दबाए।
कटा हुआ
जाने-पहचाने सब कुछ से
इस सूखी तपती रेती के विस्तार से,
और अजाने-अनपहचाने सब से
दुर्गम, निर्मम, अन्तहीन
उस ठण्डे पारावार से!