"गृहस्थ / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
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− | मेरा घर हो | + | कि तुम |
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− | कि तुम उस मेरे घर की | + | पर यह |
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− | + | —जिस में से मैं रूप, सुर, बास, रस | |
− | जो वस्तुएँ हैं, उन के अस्तित्व को छूता हूँ, | + | :पाता और पीता हूँ— |
− | + | जो वस्तुएँ हैं, उन के अस्तित्व को छूता हूँ, | |
− | मैं उस सब को भोगता हूँ जिस के सहारे मैं जीता हूँ | + | —जिस में से ही |
− | + | मैं उस सब को भोगता हूँ जिस के सहारे मैं जीता हूँ | |
− | अपने ही होने के द्रव को अपने में भरता | + | —जिस में से उलीच कर मैं |
− | यह मैं कभी नहीं भूलता: | + | अपने ही होने के द्रव को अपने में भरता हूँ— |
− | क्योंकि उसी खिड़की में से हाथ बढ़ा कर | + | यह मैं कभी नहीं भूलता: |
− | मैं अपनी अस्मिता को पकड़े | + | क्योंकि उसी खिड़की में से हाथ बढ़ा कर |
− | कैसी कड़ी कौली में जकड़े | + | मैं अपनी अस्मिता को पकड़े हूँ— |
− | और | + | कैसी कड़ी कौली में जकड़े हूँ— |
− | तुम जो सोते-जागते, जाने-अनजाने | + | और तुम—तुम्हीं मेरा वह मेरा समर्थ हाथ हो |
+ | तुम जो सोते-जागते, जाने-अनजाने | ||
मेरे साथ हो। | मेरे साथ हो। | ||
+ | </poem> |
23:17, 2 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
कि तुम
मेरा घर हो
यह मैं उस घर में रहते-रहते
बार-बार भूल जाता हूँ
या यों कहूँ कि याद ही कभी-कभी करता हूँ:
(जैसे कि यह
कि मैं साँस लेता हूँ:)
पर यह
कि तुम उस मेरे घर की
एक मात्र खिड़की हो
जिस में से मैं दुनिया को, जीवन को,
प्रकाश को देखता हूँ, पहचानता हूँ,
—जिस में से मैं रूप, सुर, बास, रस
पाता और पीता हूँ—
जो वस्तुएँ हैं, उन के अस्तित्व को छूता हूँ,
—जिस में से ही
मैं उस सब को भोगता हूँ जिस के सहारे मैं जीता हूँ
—जिस में से उलीच कर मैं
अपने ही होने के द्रव को अपने में भरता हूँ—
यह मैं कभी नहीं भूलता:
क्योंकि उसी खिड़की में से हाथ बढ़ा कर
मैं अपनी अस्मिता को पकड़े हूँ—
कैसी कड़ी कौली में जकड़े हूँ—
और तुम—तुम्हीं मेरा वह मेरा समर्थ हाथ हो
तुम जो सोते-जागते, जाने-अनजाने
मेरे साथ हो।