"युद्ध-विराम / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
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+ | उन के अमानवी लोभ के | ||
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+ | हमारे देवदारु-वनों की छाँहों में | ||
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+ | वनैली ख़ूँख़ार आँखें | ||
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+ | दूर अध-दिखती ऊँचाइयों पर | ||
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+ | गरदनें झुकाए हुए। | ||
+ | नहीं अभी कुछ नहीं बदला है: | ||
+ | इस अनोखी रंगशाला में | ||
+ | नाटक का अन्तराल मानों | ||
+ | समय है सिनेमा का: | ||
+ | कितनी रील? | ||
+ | कितनी क़िस्तें? | ||
+ | कितनी मोहलत? | ||
− | + | कितनी देर | |
− | + | जलते गाँवों की चिरायंध के बदले | |
− | + | तम्बाकू के धुएँ का सहारा? | |
− | + | कितनी देर | |
− | + | चाय और वाह-वाही की | |
− | + | चिकनी सहलाहट में | |
− | + | रुकेगा कारवाँ हमारा? | |
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− | + | हिम-चोटियों पर छाए हुए बादल | |
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− | + | विराम है, पर वहाँ राम नहीं हैं: | |
− | + | सिंचाई की नहरों के टूटे हुए कगारों पर | |
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− | + | भूख को मिटाने के मानवी दायित्व का स्वीकार नहीं, | |
+ | मिटाने की भूख की लोलुप फुफकार ही | ||
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− | + | बन्दूक़ के कुन्दे से | |
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− | + | नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है: | |
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− | + | अब भी हमारे आकाश पर | |
− | अब भी | + | धुएँ की रेखाएँ अन्धी |
− | + | चुनौती लिख जाती हैं: | |
− | + | अभी कुछ नहीं चुका है। | |
− | + | देश के जन-जन का | |
− | + | यह स्नेह और विश्वास | |
− | + | जो हमें बताता है | |
− | + | कि हम भारत के लाल हैं— | |
− | अभी कुछ नहीं | + | वही हमें यह भी याद दिलाता है |
− | + | कि हमीं इस पुण्य-भू के | |
− | + | क्षिति-सीमान्त के धीर, दृढ़व्रती दिक्पाल हैं। | |
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− | + | ओज दो, जो ओजस् हो, | |
− | + | क्षमा दो, सहिष्णुता दो, तप दो | |
− | + | हमें ज्योति दो, देशवासियों, | |
− | + | हमें कर्म-कौशल दो: | |
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<span style="font-size:14px">सितम्बर १९६५</span> | <span style="font-size:14px">सितम्बर १९६५</span> | ||
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21:33, 3 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है।
अब भी
ये रौंदे हुए खेत
हमारी अवरूद्ध जिजिविषा के
सहमे हुए साक्षी हैं;
अब भी
ये दलदल में फँसी हुई मौत की मशीनें
उन के अमानवी लोभ के
कुण्ठित, अशमित प्रेत:
अब भी
हमारे देवदारु-वनों की छाँहों में
पहाड़ी खोहों में
चट्टानों की ओट में
वनैली ख़ूँख़ार आँखें
घात में बैठी हैं:
अब भी
दूर अध-दिखती ऊँचाइयों पर
जमे हैं गिद्ध
प्रतीक्षा के बोझ से
गरदनें झुकाए हुए।
नहीं अभी कुछ नहीं बदला है:
इस अनोखी रंगशाला में
नाटक का अन्तराल मानों
समय है सिनेमा का:
कितनी रील?
कितनी क़िस्तें?
कितनी मोहलत?
कितनी देर
जलते गाँवों की चिरायंध के बदले
तम्बाकू के धुएँ का सहारा?
कितनी देर
चाय और वाह-वाही की
चिकनी सहलाहट में
रुकेगा कारवाँ हमारा?
नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है:
हिम-चोटियों पर छाए हुए बादल
केवल परदा हैं—
विराम है, पर वहाँ राम नहीं हैं:
सिंचाई की नहरों के टूटे हुए कगारों पर
बाँस की टट्टियाँ धोखे की हैं:
भूख को मिटाने के मानवी दायित्व का स्वीकार नहीं,
मिटाने की भूख की लोलुप फुफकार ही
उन के पार है।
बन्दूक़ के कुन्दे से
हल के हत्थे की छुअन
हमें अभी भी अधिक चिकनी लगती,
संगीन की धार से
हल के फाल की चमक
अब भी अधिक शीतल,
और हम मान लेते कि उधर भी
मानव मानव था और है,
उधर भी बच्चे किलकते और नारियाँ दुलराती हैं,
उधर भी मेहनत की सूखी रोटी की बरकत
लूट की बोटियों से अधिक है—
पर
अभी कुछ नहीं बदला है
क्योंकि उधर का निज़ाम
अभी उधर के किसान को
नहीं देता
आज़ादी
आत्मनिर्णय
आराम
ईमानदारी का अधिकार!
नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है:
कुछ नहीं रुका है।
अब भी हमारी धरती पर
बैर की जलती पगडण्डियाँ दिख जाती हैं,
अब भी हमारे आकाश पर
धुएँ की रेखाएँ अन्धी
चुनौती लिख जाती हैं:
अभी कुछ नहीं चुका है।
देश के जन-जन का
यह स्नेह और विश्वास
जो हमें बताता है
कि हम भारत के लाल हैं—
वही हमें यह भी याद दिलाता है
कि हमीं इस पुण्य-भू के
क्षिति-सीमान्त के धीर, दृढ़व्रती दिक्पाल हैं।
हमें बल दो, देशवासियों,
क्योंकि तुम बल हो:
तेज दो, जो तेजस् हो,
ओज दो, जो ओजस् हो,
क्षमा दो, सहिष्णुता दो, तप दो
हमें ज्योति दो, देशवासियों,
हमें कर्म-कौशल दो:
क्योंकि अभी कुछ नहीं बदला है,
अभी कुछ नहीं बदला है...
सितम्बर १९६५