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"स्मारक / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

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|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
 
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ओ बीच की पीढ़ी के लोगो, 
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तुम युवतर पीढ़ी से कहते हो: 
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::तुम घृणा के धुन्ध में जनमे थे 
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::तुम आज भी घृणा करो। 
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::गली-गली, नुक्कड़-चौराहे 
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::बचे खड़े खंडहरों 
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::या कि युद्ध के बाद रचे स्मारक-स्तूपों को देख-देख 
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::फिर याद करो 
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::वह घृणा 
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::धुन्ध 
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::कालिमा— 
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::वही घृणा फिर ह्रदय धरो!   
  
ओ बीच की पीढ़ी के लोगो, <br>
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पर जिस तुमसे पहले की पीढ़ी ने 
तुम युवतर पीढ़ी से कहते हो: <br>
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उन्हें जना 
::तुम घृणा के धुन्ध में जनमे थे <br>
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क्या उन से, ओ बिचौलियो! यह पूछा था 
::तुम आज भी घृणा करो। <br>
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वे क्या मरे घृणा में
::गली-गली, नुक्कड़-चौराहे <br>
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खंडहर होंगे ढूह घृणा के 
::बचे खड़े खंडहरों <br>
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और घृणा के स्मारक होंगे नए तुम्हारे थम्भ,
::या कि युद्ध के बाद रचे स्मारक-स्तूपों को देख-देख <br>
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:::::चौर, गुम्बद, मीनारें, 
::फिर याद करो <br>
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पर वे जो मरे 
::वह घृणा <br>
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घृणा में नहीं, प्यार में मरे! 
::धुन्ध <br>
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जिस मिट्टी को दाब रहे हैं ये स्मारक सदर्प, 
::कालिमा— <br>
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चप्पा-चप्पा उस का, कनी-कनी साक्षी है 
::वही घृणा फिर ह्रदय धरो! <br> <br>
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उस अनन्य एकान्त प्यार का 
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जो कि घृणा से उपजे हर संकट को काट गया!  
  
पर जिस तुमसे पहले की पीढ़ी ने <br>
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तुम जो खुद उन के नाम के बल पर जीते हो,
उन्हें जना <br>
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क्या वह बल घृणा को ही देना चाहते हो— 
क्या उन से, ओ बिचौलियो! यह पूछा था <br>
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उन के नाम का बल, उन का बल,
वे क्या मरे घृणा में? <br>
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जिन्होंने अपने प्राण 
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जिस मिट्टी को दाब रहे हैं ये स्मारक सदर्प, <br>
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उस अनन्य एकान्त प्यार का <br>
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जो कि घृणा से उपजे हर संकट को काट गया! <br> <br>
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क्या वह बल घृणा को ही देना चाहते हो— <br>
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उन के नाम का बल, उन का बल, <br>
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प्यार की मिट्टी
जिन्होंने अपने प्राण <br>
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पीढ़ी-दर-पीढ़ी!  
 
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जून १९६६</span>
 
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21:37, 3 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

ओ बीच की पीढ़ी के लोगो,
तुम युवतर पीढ़ी से कहते हो:
तुम घृणा के धुन्ध में जनमे थे
तुम आज भी घृणा करो।
गली-गली, नुक्कड़-चौराहे
बचे खड़े खंडहरों
या कि युद्ध के बाद रचे स्मारक-स्तूपों को देख-देख
फिर याद करो
वह घृणा
धुन्ध
कालिमा—
वही घृणा फिर ह्रदय धरो!

पर जिस तुमसे पहले की पीढ़ी ने
उन्हें जना
क्या उन से, ओ बिचौलियो! यह पूछा था
वे क्या मरे घृणा में?
खंडहर होंगे ढूह घृणा के
और घृणा के स्मारक होंगे नए तुम्हारे थम्भ,
चौर, गुम्बद, मीनारें,
पर वे जो मरे
घृणा में नहीं, प्यार में मरे!
जिस मिट्टी को दाब रहे हैं ये स्मारक सदर्प,
चप्पा-चप्पा उस का, कनी-कनी साक्षी है
उस अनन्य एकान्त प्यार का
जो कि घृणा से उपजे हर संकट को काट गया!

तुम जो खुद उन के नाम के बल पर जीते हो,
क्या वह बल घृणा को ही देना चाहते हो—
उन के नाम का बल, उन का बल,
जिन्होंने अपने प्राण
घृणा को नहीं, प्यार को दिए,
स्मारकों को नहीं, मिट्टी को दिए,
मोल आँकनेवालों की नहीं, मूल्यों को दिए...

ये स्मारक—नए-पुरान ढूह—नहीं,
वह मिट्टी ही है पूज्य:
प्यार की मिट्टी
जिस से सरजन होता है
मूल्यों का
पीढ़ी-दर-पीढ़ी!

वोल्गोग्राद (स्तालिनग्राद)
जून १९६६