"दायम तेरे दर पे / अनामिका" के अवतरणों में अंतर
Pratishtha (चर्चा | योगदान) (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनामिका |संग्रह= }} सभागार की<br> ये पुरानी दरी<br> गालिब के<br...) |
|||
पंक्ति 4: | पंक्ति 4: | ||
|संग्रह= | |संग्रह= | ||
}} | }} | ||
− | + | {{KKCatKavita}} | |
− | ये पुरानी दरी | + | <poem> |
− | गालिब के | + | सभागार की |
− | किसी शेर के साथ | + | ये पुरानी दरी |
− | बुनी गई होगी - | + | गालिब के |
− | कम से कम | + | किसी शेर के साथ |
− | दो शताब्दी पहले। | + | बुनी गई होगी - |
− | ’दर‘ का ’दर्द‘ से | + | कम से कम |
− | होगा जरूर | + | दो शताब्दी पहले। |
− | कोई तो रिश्ता | + | ’दर‘ का ’दर्द‘ से |
− | ’दायम पडा हुआ | + | होगा जरूर |
− | तेरे दर पर | + | कोई तो रिश्ता |
− | नहीं हूँ मैं - | + | ’दायम पडा हुआ |
− | कह नहीं सकती | + | तेरे दर पर |
− | बेचारी दरी। | + | नहीं हूँ मैं - |
− | जूते-चप्पल झेलकर भी | + | कह नहीं सकती |
− | हरदम सजदे में बिछी | + | बेचारी दरी। |
− | धूल फाँकती सदियों की | + | जूते-चप्पल झेलकर भी |
− | मसक गई है ये जरा-सी | + | हरदम सजदे में बिछी |
− | जब कभी खिंच जाती है | + | धूल फाँकती सदियों की |
− | सभा लम्बी | + | मसक गई है ये जरा-सी |
− | राकस की टीक की तरह | + | जब कभी खिंच जाती है |
− | धीरे से भरती है | + | सभा लम्बी |
− | शिष्ट दरी | + | राकस की टीक की तरह |
− | नन्हीं-मुन्नी एक | + | धीरे से भरती है |
− | अचकचाती-सी | + | शिष्ट दरी |
− | उबासी | + | नन्हीं-मुन्नी एक |
− | पुराने अदब का | + | अचकचाती-सी |
− | इतना लिहाज है उसे, | + | उबासी |
− | खाँसती भी है तो धीरे से! | + | पुराने अदब का |
− | किरकिराती जीभ से रखती है | + | इतना लिहाज है उसे, |
− | होंठ ये | + | खाँसती भी है तो धीरे से! |
− | लगातार तर | + | किरकिराती जीभ से रखती है |
− | किसी पुराने चश्मे के काँच-सी-धुँधली, | + | होंठ ये |
− | किसी गंदुमी शाम-सी धूसर | + | लगातार तर |
− | सभागार की ये पुरानी दरी | + | किसी पुराने चश्मे के काँच-सी-धुँधली, |
− | बुनी गई होगी | + | किसी गंदुमी शाम-सी धूसर |
− | गालिब के किसी शेर की तरह | + | सभागार की ये पुरानी दरी |
− | कम-से-कम | + | बुनी गई होगी |
− | दो शताब्दी पहले। | + | गालिब के किसी शेर की तरह |
− | नई-नई माँओं को | + | कम-से-कम |
− | जब पढने होते हैं | + | दो शताब्दी पहले। |
− | सेमिनार में पर्चे | + | नई-नई माँओं को |
− | पीली सी साटन की फालिया पर | + | जब पढने होते हैं |
− | छोड जाती हैं वे बच्चे | + | सेमिनार में पर्चे |
− | सभागार की इस | + | पीली सी साटन की फालिया पर |
+ | छोड जाती हैं वे बच्चे | ||
+ | सभागार की इस | ||
दरी दादी के भरोसे। | दरी दादी के भरोसे। | ||
+ | </poem> |
20:40, 4 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
सभागार की
ये पुरानी दरी
गालिब के
किसी शेर के साथ
बुनी गई होगी -
कम से कम
दो शताब्दी पहले।
’दर‘ का ’दर्द‘ से
होगा जरूर
कोई तो रिश्ता
’दायम पडा हुआ
तेरे दर पर
नहीं हूँ मैं -
कह नहीं सकती
बेचारी दरी।
जूते-चप्पल झेलकर भी
हरदम सजदे में बिछी
धूल फाँकती सदियों की
मसक गई है ये जरा-सी
जब कभी खिंच जाती है
सभा लम्बी
राकस की टीक की तरह
धीरे से भरती है
शिष्ट दरी
नन्हीं-मुन्नी एक
अचकचाती-सी
उबासी
पुराने अदब का
इतना लिहाज है उसे,
खाँसती भी है तो धीरे से!
किरकिराती जीभ से रखती है
होंठ ये
लगातार तर
किसी पुराने चश्मे के काँच-सी-धुँधली,
किसी गंदुमी शाम-सी धूसर
सभागार की ये पुरानी दरी
बुनी गई होगी
गालिब के किसी शेर की तरह
कम-से-कम
दो शताब्दी पहले।
नई-नई माँओं को
जब पढने होते हैं
सेमिनार में पर्चे
पीली सी साटन की फालिया पर
छोड जाती हैं वे बच्चे
सभागार की इस
दरी दादी के भरोसे।