भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"चौका / अनामिका" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छो (चौका /अनामिका का नाम बदलकर चौका / अनामिका कर दिया गया है)
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
|संग्रह=
 
|संग्रह=
 
}}
 
}}
 +
{{KKCatKavita}}
 +
<poem>
 +
मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी
 +
ज्वालामुखी बेलते हैं पहाड़
 +
भूचाल बेलते हैं घर
 +
सन्नाटे शब्द बेलते हैं, भाटे समुंदर। 
  
मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी<br>
+
रोज़ सुबह सूरज में
ज्वालामुखी बेलते हैं पहाड़<br>
+
एक नया उचकुन लगाकर
भूचाल बेलते हैं घर<br>
+
एक नई धाह फेंककर
सन्नाटे शब्द बेलते हैं, भाटे समुंदर।<br><br>
+
मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।
 +
पृथ्वी– जो खुद एक लोई है
 +
सूरज के हाथों में
 +
रख दी गई है, पूरी की पूरी ही सामने
 +
कि लो, इसे बेलो, पकाओ
 +
जैसे मधुमक्खियाँ अपने पंखों की छाँह में
 +
पकाती हैं शहद। 
  
रोज़ सुबह सूरज में<br>
+
सारा शहर चुप है  
एक नया उचकुन लगाकर<br>
+
धुल चुके हैं सारे चौकों के बर्तन।  
एक नई धाह फेंककर<br>
+
बुझ चुकी है आखिरी चूल्हे की राख भी  
मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।<br>
+
और मैं  
पृथ्वी– जो खुद एक लोई है<br>
+
अपने ही वजूद की आंच के आगे  
सूरज के हाथों में<br>
+
औचक हड़बड़ी में  
रख दी गई है, पूरी की पूरी ही सामने<br>
+
खुद को ही सानती  
कि लो, इसे बेलो, पकाओ<br>
+
खुद को ही गूंधती हुई बार-बार  
जैसे मधुमक्खियाँ अपने पंखों की छाँह में<br>
+
ख़ुश हूँ कि रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।
पकाती हैं शहद।<br><br>
+
</poem>
 
+
सारा शहर चुप है<br>
+
धुल चुके हैं सारे चौकों के बर्तन।<br>
+
बुझ चुकी है आखिरी चूल्हे की राख भी<br>
+
और मैं<br>
+
अपने ही वजूद की आंच के आगे<br>
+
औचक हड़बड़ी में<br>
+
खुद को ही सानती<br>
+
खुद को ही गूंधती हुई बार-बार<br>
+
ख़ुश हूँ कि रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।<br><br>
+

20:42, 4 नवम्बर 2009 का अवतरण

मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी
ज्वालामुखी बेलते हैं पहाड़
भूचाल बेलते हैं घर
सन्नाटे शब्द बेलते हैं, भाटे समुंदर।

रोज़ सुबह सूरज में
एक नया उचकुन लगाकर
एक नई धाह फेंककर
मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।
पृथ्वी– जो खुद एक लोई है
सूरज के हाथों में
रख दी गई है, पूरी की पूरी ही सामने
कि लो, इसे बेलो, पकाओ
जैसे मधुमक्खियाँ अपने पंखों की छाँह में
पकाती हैं शहद।

सारा शहर चुप है
धुल चुके हैं सारे चौकों के बर्तन।
बुझ चुकी है आखिरी चूल्हे की राख भी
और मैं
अपने ही वजूद की आंच के आगे
औचक हड़बड़ी में
खुद को ही सानती
खुद को ही गूंधती हुई बार-बार
ख़ुश हूँ कि रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।