भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"कूड़ा बीनते बच्चे / अनामिका" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(हिज्जे) |
|||
पंक्ति 4: | पंक्ति 4: | ||
|संग्रह= | |संग्रह= | ||
}} | }} | ||
− | + | {{KKCatKavita}} | |
+ | <poem> | ||
उन्हें हमेशा जल्दी रहती है | उन्हें हमेशा जल्दी रहती है | ||
− | |||
उनके पेट में चूहे कूदते हैं | उनके पेट में चूहे कूदते हैं | ||
− | |||
और खून में दौड़ती है गिलहरी! | और खून में दौड़ती है गिलहरी! | ||
− | |||
बड़े-बड़े डग भरते | बड़े-बड़े डग भरते | ||
− | |||
चलते हैं वे तो | चलते हैं वे तो | ||
− | |||
उनका ढीला-ढाला कुर्ता | उनका ढीला-ढाला कुर्ता | ||
− | |||
तन जाता है फूलकर उनके पीछे | तन जाता है फूलकर उनके पीछे | ||
− | |||
जैसे कि हो पाल कश्ती का! | जैसे कि हो पाल कश्ती का! | ||
− | |||
बोरियों में टनन-टनन गाती हुई | बोरियों में टनन-टनन गाती हुई | ||
− | |||
रम की बोतलें | रम की बोतलें | ||
− | |||
उनकी झुकी पीठ की रीढ़ से | उनकी झुकी पीठ की रीढ़ से | ||
− | |||
कभी-कभी कहती हैं- | कभी-कभी कहती हैं- | ||
− | |||
"कैसी हो","कैसा है मंडी का हाल?" | "कैसी हो","कैसा है मंडी का हाल?" | ||
− | |||
बढ़ते-बढ़ते | बढ़ते-बढ़ते | ||
− | |||
चले जाते हैं वे | चले जाते हैं वे | ||
− | |||
पाताल तक | पाताल तक | ||
− | |||
और वहाँ लग्गी लगाकर | और वहाँ लग्गी लगाकर | ||
− | |||
बैंगन तोड़ने वाले | बैंगन तोड़ने वाले | ||
− | |||
बौनों के वास्ते | बौनों के वास्ते | ||
− | |||
बना देते हैं | बना देते हैं | ||
− | |||
माचिस के खाली डिब्बों के | माचिस के खाली डिब्बों के | ||
− | |||
छोटे-छोटे कई घर | छोटे-छोटे कई घर | ||
− | |||
खुद तो वे कहीं नहीं रहते, | खुद तो वे कहीं नहीं रहते, | ||
− | |||
पर उन्हें पता है घर का मतलब! | पर उन्हें पता है घर का मतलब! | ||
− | |||
वे देखते हैं कि अकसर | वे देखते हैं कि अकसर | ||
− | |||
चींते भी कूड़े के ठोंगों से पेड़ा खुरचकर | चींते भी कूड़े के ठोंगों से पेड़ा खुरचकर | ||
− | |||
ले जाते हैं अपने घर! | ले जाते हैं अपने घर! | ||
− | |||
ईश्वर अपना चश्मा पोंछता है | ईश्वर अपना चश्मा पोंछता है | ||
− | |||
सिगरेट की पन्नी उनसे ही लेकर। | सिगरेट की पन्नी उनसे ही लेकर। | ||
+ | </poem> |
20:43, 4 नवम्बर 2009 का अवतरण
उन्हें हमेशा जल्दी रहती है
उनके पेट में चूहे कूदते हैं
और खून में दौड़ती है गिलहरी!
बड़े-बड़े डग भरते
चलते हैं वे तो
उनका ढीला-ढाला कुर्ता
तन जाता है फूलकर उनके पीछे
जैसे कि हो पाल कश्ती का!
बोरियों में टनन-टनन गाती हुई
रम की बोतलें
उनकी झुकी पीठ की रीढ़ से
कभी-कभी कहती हैं-
"कैसी हो","कैसा है मंडी का हाल?"
बढ़ते-बढ़ते
चले जाते हैं वे
पाताल तक
और वहाँ लग्गी लगाकर
बैंगन तोड़ने वाले
बौनों के वास्ते
बना देते हैं
माचिस के खाली डिब्बों के
छोटे-छोटे कई घर
खुद तो वे कहीं नहीं रहते,
पर उन्हें पता है घर का मतलब!
वे देखते हैं कि अकसर
चींते भी कूड़े के ठोंगों से पेड़ा खुरचकर
ले जाते हैं अपने घर!
ईश्वर अपना चश्मा पोंछता है
सिगरेट की पन्नी उनसे ही लेकर।