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तिब्बत देश / अनिल कुमार सिंह

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|संग्रह=पहला उपदेश / अनिल कुमार सिंह
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आम भारतीय जुलूसों की तरह ही
गुज़र रहा था उनका हुजूम भी
‘तिब्बत देश हमारा है’ के नारे
लगाता हुआ हिंदी में
आम भारतीय जुलूसों की तरह ही<br>वे तिब्बती थे यक़ीनन गुज़र रहा लेकिन यह विरोध प्रदर्शन का विदेशी तरीक़ा था उनका हुजूम भी<br>‘तिब्बत देश हमारा है’ के नारे<br>लगाता हुआ हिन्दी में<br><br>शायद
वे तिब्बती थे यक़ीनन<br>नारों ने भी बदल ली थी लेकिन यह विरोध प्रदर्शन का<br>विदेशी तरीका था शायद<br><br>अपनी बोली
नारों ने भी बदल ली थी<br>एक भिखारी देश के नागरिक को अपनी बोली<br><br>कैसे अनुभव करा सकते थे भला वे बेघर होने का संताप?
एक भिखारी देश अस्सी करोड़ आबादी के नागरिक को<br>कान पर कैसे अनुभव करा सकते जुओं की तरह रेंग रहे थे भला वे<br>बेघर होने का सन्ताप ?<br><br>पकड़कर फेंक दिए जाने की नियति से बद्ध
अस्सी करोड़ आबादी के कान पर<br>दलाईलामा तुम्हारी लड़ाई का जुओं की तरह रेंग यही हश्र होना था आख़िर! दर-बदर होने का दुख उन्हें भी है जो गला रहे थे वे<br>हैं अपना हाड़ पकड़कर फेंक दिए जाने तिब्बत की<br>नियति से बद्ध<br><br>बर्फानी ऊँचाइयों पर
दलाईलामा तुम्हारी लड़ाई का<br>उन्हें दूसरी बोली नहीं आती यही हश्र होना था आखिर !<br>और इसीलिए उनकी आहों में दर-बदर होने का दुख उन्हें भी दम है<br>तुमसे ज़्यादा जो गला रहे हैं अपना हाड़<br>तिब्बत की बर्फानी ऊँचाइयों पर<br><br>दलाईलामा!
उन्हें दूसरी बोली वे मुहताज नहीं आती<br>है अपनी लड़ाई के लिए और इसीलिए उनकी आहों में<br>दम है तुमसे ज़्यादा<br>तुम्हारे या टुकड़े डालनेवाले किन्हीं दलाईलामा !<br><br>साम्राज्यवादी शुभचिन्तकों के
वे मुहताज नहीं है अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं तिब्बत के लिए<br>तुम्हारे या टुकड़े डालनेवाले किन्हीं<br>तिब्बत में रहकर ही जो साम्राज्यवादी शुभचिन्तकों के<br><br>धड़कता है उनकी पसलियों में तुम्हारे जैसा ही
वे लड़ रहे हैं तिब्बत के लिए<br>तिब्बत में रहकर ही जो<br>धड़कता है उनकी पसलियों में<br>तुम्हारे जैसा ही<br><br> कोई क्या बताएगा उन्हें<br>बेघर होने का सन्ताप संताप दलाईलामा !</poem>
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