भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"तिब्बत देश / अनिल कुमार सिंह" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छो (हिज्जे)
 
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
|संग्रह=पहला उपदेश / अनिल कुमार सिंह
 
|संग्रह=पहला उपदेश / अनिल कुमार सिंह
 
}}
 
}}
 +
{{KKCatKavita}}
 +
<poem>
 +
आम भारतीय जुलूसों की तरह ही
 +
गुज़र रहा था उनका हुजूम भी
 +
‘तिब्बत देश हमारा है’ के नारे
 +
लगाता हुआ हिंदी में 
  
आम भारतीय जुलूसों की तरह ही<br>
+
वे तिब्बती थे यक़ीनन
गुज़र रहा था उनका हुजूम भी<br>
+
लेकिन यह विरोध प्रदर्शन का
‘तिब्बत देश हमारा है’ के नारे<br>
+
विदेशी तरीक़ा था शायद 
लगाता हुआ हिंदी में<br><br>
+
  
वे तिब्बती थे यक़ीनन<br>
+
नारों ने भी बदल ली थी
लेकिन यह विरोध प्रदर्शन का<br>
+
अपनी बोली 
विदेशी तरीक़ा था शायद<br><br>
+
  
नारों ने भी बदल ली थी<br>
+
एक भिखारी देश के नागरिक को
अपनी बोली<br><br>
+
कैसे अनुभव करा सकते थे भला वे
 +
बेघर होने का संताप? 
  
एक भिखारी देश के नागरिक को<br>
+
अस्सी करोड़ आबादी के कान पर
कैसे अनुभव करा सकते थे भला वे<br>
+
जुओं की तरह रेंग रहे थे वे  
बेघर होने का संताप?<br><br>
+
पकड़कर फेंक दिए जाने की
 +
नियति से बद्ध 
  
अस्सी करोड़ आबादी के कान पर<br>
+
दलाईलामा तुम्हारी लड़ाई का
जुओं की तरह रेंग रहे थे वे<br>
+
यही हश्र होना था आख़िर!
पकड़कर फेंक दिए जाने की<br>
+
दर-बदर होने का दुख उन्हें भी है
नियति से बद्ध<br><br>
+
जो गला रहे हैं अपना हाड़
 +
तिब्बत की बर्फानी ऊँचाइयों पर 
  
दलाईलामा तुम्हारी लड़ाई का<br>
+
उन्हें दूसरी बोली नहीं आती
यही हश्र होना था आख़िर!<br>
+
और इसीलिए उनकी आहों में
दर-बदर होने का दुख उन्हें भी है<br>
+
दम है तुमसे ज़्यादा
जो गला रहे हैं अपना हाड़<br>
+
दलाईलामा! 
तिब्बत की बर्फानी ऊँचाइयों पर<br><br>
+
  
उन्हें दूसरी बोली नहीं आती<br>
+
वे मुहताज नहीं है अपनी लड़ाई के लिए
और इसीलिए उनकी आहों में<br>
+
तुम्हारे या टुकड़े डालनेवाले किन्हीं
दम है तुमसे ज़्यादा<br>
+
साम्राज्यवादी शुभचिन्तकों के 
दलाईलामा!<br><br>
+
  
वे मुहताज नहीं है अपनी लड़ाई के लिए<br>
+
वे लड़ रहे हैं तिब्बत के लिए  
तुम्हारे या टुकड़े डालनेवाले किन्हीं<br>
+
तिब्बत में रहकर ही जो
साम्राज्यवादी शुभचिन्तकों के<br><br>
+
धड़कता है उनकी पसलियों में
 +
तुम्हारे जैसा ही 
  
वे लड़ रहे हैं तिब्बत के लिए<br>
+
कोई क्या बताएगा उन्हें  
तिब्बत में रहकर ही जो<br>
+
धड़कता है उनकी पसलियों में<br>
+
तुम्हारे जैसा ही<br><br>
+
 
+
कोई क्या बताएगा उन्हें<br>
+
 
बेघर होने का संताप दलाईलामा!
 
बेघर होने का संताप दलाईलामा!
 +
</poem>

21:21, 4 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

आम भारतीय जुलूसों की तरह ही
गुज़र रहा था उनका हुजूम भी
‘तिब्बत देश हमारा है’ के नारे
लगाता हुआ हिंदी में

वे तिब्बती थे यक़ीनन
लेकिन यह विरोध प्रदर्शन का
विदेशी तरीक़ा था शायद

नारों ने भी बदल ली थी
अपनी बोली

एक भिखारी देश के नागरिक को
कैसे अनुभव करा सकते थे भला वे
बेघर होने का संताप?

अस्सी करोड़ आबादी के कान पर
जुओं की तरह रेंग रहे थे वे
पकड़कर फेंक दिए जाने की
नियति से बद्ध

दलाईलामा तुम्हारी लड़ाई का
यही हश्र होना था आख़िर!
दर-बदर होने का दुख उन्हें भी है
जो गला रहे हैं अपना हाड़
तिब्बत की बर्फानी ऊँचाइयों पर

उन्हें दूसरी बोली नहीं आती
और इसीलिए उनकी आहों में
दम है तुमसे ज़्यादा
दलाईलामा!

वे मुहताज नहीं है अपनी लड़ाई के लिए
तुम्हारे या टुकड़े डालनेवाले किन्हीं
साम्राज्यवादी शुभचिन्तकों के

वे लड़ रहे हैं तिब्बत के लिए
तिब्बत में रहकर ही जो
धड़कता है उनकी पसलियों में
तुम्हारे जैसा ही

कोई क्या बताएगा उन्हें
बेघर होने का संताप दलाईलामा!