"तर्पण / अनीता वर्मा" के अवतरणों में अंतर
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21:40, 4 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
जब नहीं थे राम बुद्ध ईसा मोहम्मद
तब भी थे धरती पर मनुष्य
जंगलों में विचरते आग पानी हवा के आगे झुकते
किसी विश्वास पर ही टिका होता था उनका जीवन
फिर आए अनुयायी
आया एक नया अधिकार युद्ध
घृणा और पाखण्ड के नए रिवाज़ आए
धरती धर्म से बोझिल थी
उसके अगंभीर भार से दबती हुई
सभ्यता के साथ अजीब नाता है बर्बरता का
जैसे फूलों को घूरती हिंसक आंख
हमने रंग से नफ़रत पैदा की
सिर्फ़ उन दो रंगों से जो हमारे पास थे
उन्हें पूरक नहीं बना सके दिन और रात की तरह
सभ्यता की बढ़ती रोशनी में
प्रवेश करती रही अंधेरे की लहर
विज्ञान की चमकती सीढ़ियां
आदमी के रक्त की बनावट
हम मस्तिष्क के बारे में पढ़ते रहे
सोच और विचार को अलग करते रहे
मनुष्य ने संदेह किया मनुष्य पर
उसे बदल डाला एक जंतु में
विश्वास की एक नदी जाती थी मनुष्यता के समुद्र तक
उसी में घोलते रहे अपना अविश्वास
अब गंगा की तरह इसे भी साफ़ करना मुश्किल
कब तक बचे रहेंगे हम इस जल से करते हुए तर्पण.