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रसोई / अरुण कमल

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|रचनाकार=अरुण कमल
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एक दिन बैठे-बैठे उसने
 
अजीब बात सोची
 
सारा दिन
 
खाने में जाता है
 
खाने की खोज में
 
खाना पकाने में
 
खाना खाने खिलाने में
 
फिर हाथ अँचा फिर उसी दाने की टोह में
 
सारा दिन सालन अनाज फल मूल
 
उलटते पलटते काटते कतरते रिंधाते
 
यों बिता देते हैं जैसे
 
इस धरती ने बिताए करोड़ों बरस
 
दाना जुटाते दाना बाँटते
 
हर जगह हर जीव के मुँह में जीरा डालते
 
इस तरह की यह पूरी धरती
 
एक रसोई ही तो है
 
एक लंगर
 
वाहे गुरू का!
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