भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रसोई / अरुण कमल

13 bytes added, 07:11, 5 नवम्बर 2009
|रचनाकार=अरुण कमल
}}
{{KKCatKavita}}<poem>
एक दिन बैठे-बैठे उसने
 
अजीब बात सोची
 
सारा दिन
 
खाने में जाता है
 
खाने की खोज में
 
खाना पकाने में
 
खाना खाने खिलाने में
 
फिर हाथ अँचा फिर उसी दाने की टोह में
 
सारा दिन सालन अनाज फल मूल
 
उलटते पलटते काटते कतरते रिंधाते
 
यों बिता देते हैं जैसे
 
इस धरती ने बिताए करोड़ों बरस
 
दाना जुटाते दाना बाँटते
 
हर जगह हर जीव के मुँह में जीरा डालते
 
इस तरह की यह पूरी धरती
 
एक रसोई ही तो है
 
एक लंगर
 
वाहे गुरू का!
</poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
19,395
edits